"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 70वां श्लोक"
"प्रश्न विचार"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
शृणुष्वावहितो विद्वन्यन्मया समुदीर्यते । तदेतच्छ्रवणात्सद्यो भवबन्धाद्विमोक्ष्यसे ॥ ७० ॥
अर्थ:-हे विद्वन् ! जो मैं कहता हूँ, सावधान होकर सुन; उसको सुनने से तू शीघ्र ही भवबन्धन से छूट जायगा।
यह श्लोक विवेकचूडामणि के उस महत्वपूर्ण चरण का उद्घोष करता है जहाँ आचार्य शंकर अपने शिष्य को उपदेश देने जा रहे हैं। श्लोक में उन्होंने "विद्वन्" शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि यह उपदेश किसी सामान्य व्यक्ति को नहीं, बल्कि ऐसे साधक को दिया जा रहा है जो पहले से ही ज्ञान, विवेक और वैराग्य से सम्पन्न है और अब मोक्ष के लिए तत्पर है। गुरु शिष्य से कहते हैं — "शृणुष्वावहितः", अर्थात सावधान होकर सुन। यहाँ केवल 'सुनना' पर्याप्त नहीं है, बल्कि 'आवहित', यानी पूरी एकाग्रता, श्रद्धा और समर्पण के साथ सुनना आवश्यक है। क्योंकि वे जो कुछ कहने जा रहे हैं, वह केवल शब्द नहीं, बल्कि आत्मज्ञान की जीवित अग्नि है, जो शिष्य के भीतर के अज्ञान को भस्म कर सकती है।
"यन्मया समुदीर्यते" — मैं जो बोल रहा हूँ, वह साधारण उपदेश नहीं है, बल्कि वह दिव्य तत्त्वज्ञान है, जो परमहंसों के अनुभूत सत्य पर आधारित है। यह उपदेश केवल बौद्धिक चर्चा नहीं, बल्कि अनुभवसिद्ध है। शंकराचार्य यह बताना चाहते हैं कि गुरु के वचनों में केवल भाषण नहीं होता, उसमें चैतन्य होता है, करुणा होती है, और वह शिष्य के अंतःकरण को छेदने में सक्षम होता है। यदि शिष्य सम्पूर्ण श्रद्धा और मन की स्थिरता के साथ इसे ग्रहण करता है, तो वह तत्कालिक रूप से भी गहरे प्रभाव को अनुभव कर सकता है।
इसके बाद शंकराचार्य कहते हैं — "तदेतच्छ्रवणात् सद्यो भवबन्धाद्विमोक्ष्यसे", अर्थात इस उपदेश को सुनने मात्र से ही तू 'भवबन्धन' से मुक्त हो जाएगा। यहाँ 'श्रवण' का अर्थ केवल कान से सुनना नहीं है, बल्कि श्रद्धापूर्वक उस ज्ञान को अपने भीतर उतारना है। यह 'श्रवण' उस प्रक्रिया का अंग है, जिसे 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' कहा गया है। जब मन पूरी तरह गुरु के वचनों पर टिक जाता है, तब यह ज्ञान भीतर प्रवेश करता है और अज्ञान के अंधकार को दूर कर देता है।
'भवबन्ध' का अर्थ है संसार के जन्म-मरण के चक्र में फँसे रहना। जब जीव स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि आदि से अलग करके अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को पहचान लेता है, तब उसे ज्ञात होता है कि वह तो जन्म-मरण से परे, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चैतन्य है। यह अनुभूति ही मुक्ति है। शंकराचार्य आश्वस्त करते हैं कि यदि तू सावधान होकर इस ज्ञान को सुनता है और इसे अपने जीवन में धारण करता है, तो इसी जन्म में, इसी क्षण भी तू मुक्त हो सकता है।
इस श्लोक में गुरु की करुणा, शिष्य के लिए उनकी चिंता, और ज्ञान की शक्ति – तीनों का संगम है। यह श्लोक बताता है कि सच्चा गुरु वही होता है जो अपने अनुभव के अमृत को शिष्य के लिए सहज बना दे, और सच्चा शिष्य वही होता है जो उस अमृत को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करे। ज्ञान की यह प्रक्रिया केवल बाह्य सुनने की नहीं, बल्कि हृदय से जुड़ने की होती है। और जब यह जुड़ाव होता है, तब मुक्ति भी सहज हो जाती है। यही विवेकचूडामणि की आत्मा है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!