"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 71वां एवं 72वां श्लोक"
"प्रश्न विचार"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु
ततः शमश्चापि दमस्तितिक्षा न्यासः प्रसक्ताखिलकर्मणां भृशम् ॥ ७१ ॥
ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व-ध्यानं चिरं नित्यनिरन्तरं मुनेः ।
ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वा-निहैव निर्वाणसुखं समृच्छति ॥ ७२ ॥
अर्थ:-मोक्ष का प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओं में अत्यन्त वैराग्य होना कहा है, तदनन्तर शम, दम, तितिक्षा और सम्पूर्ण आसक्तियुक्त कर्मों का सर्वथा त्याग है। तदुपरान्त मुनि को श्रवण, मनन और चिरकाल तक नित्य-निरन्तर आत्म-तत्त्व का ध्यान करना चाहिये। तब वह विद्वान् परम निर्विकल्पावस्था को प्राप्त होकर निर्वाण-सुख को पाता है।
मोक्ष की प्राप्ति मानव जीवन का परम लक्ष्य है, और इसके लिए आचार्य शंकराचार्य विवेकचूडामणि में अत्यंत स्पष्ट और क्रमबद्ध मार्ग प्रस्तुत करते हैं। श्लोक ७१ और ७२ में मोक्ष प्राप्ति के हेतु को विस्तार से बताया गया है। ये श्लोक न केवल आत्मा की स्वतंत्रता के साधन बताते हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट करते हैं कि साधक को किस प्रकार की अन्तर्दृष्टि, मनोवृत्ति और आचरण अपनाना चाहिए ताकि वह ब्रह्म-तत्त्व को जान सके और संसार के बन्धनों से मुक्त हो सके।
सबसे पहले आचार्य कहते हैं—मोक्ष का प्रथम कारण "वैराग्य" है। यह वैराग्य सामान्य नहीं, बल्कि "अत्यन्तमनित्यवस्तुषु" — अत्यन्त अनित्य वस्तुओं में पूर्ण वैराग्य होना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि जो वस्तुएँ नश्वर हैं, क्षणिक हैं, जो सदा बदलती रहती हैं—जैसे शरीर, सुख-दुःख, भोग, सम्मान, पद, परिवार आदि—उनसे मन को पूर्णतया हटाकर आत्मा की ओर एकाग्र करना आवश्यक है। जब तक मन इन अनित्य वस्तुओं में आसक्त रहता है, तब तक वह शुद्ध नहीं होता और आत्मज्ञान के योग्य नहीं बनता। इसलिए वैराग्य को सभी साधनों में प्रथम बताया गया है।
वैराग्य के पश्चात साधक को शम, दम, तितिक्षा और कर्मों का त्याग करना होता है। शम का अर्थ है—मन को विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करना। यह आन्तरिक शांति और एकाग्रता का अभ्यास है। दम का अर्थ है—इन्द्रियों को विषयों से हटाकर वश में रखना। जब इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती हैं, तो मन भी चंचल हो जाता है और ध्यान नहीं लग पाता। तितिक्षा का अर्थ है—ताप, शीत, सुख, दुःख, अपमान आदि द्वन्द्वों को बिना क्षुब्ध हुए सहना। यह साधक की मानसिक दृढ़ता को दर्शाता है।
इसके साथ ही "प्रसक्ताखिलकर्मणां न्यासः"—जो समस्त कर्म आसक्ति से किए जाते हैं, उनका पूर्ण त्याग भी आवश्यक है। यहाँ कर्म-त्याग का अर्थ बाह्य कर्म छोड़ना नहीं है, बल्कि फल की आशा और आसक्ति को छोड़ना है। केवल ईश्वर को अर्पित भाव से कर्म करना चाहिए, जिससे कर्म बन्धन उत्पन्न न हो। जब यह सब अभ्यास में आता है, तब साधक आन्तरिक रूप से मुक्त होने लगता है।
इसके बाद अगले श्लोक में कहा गया है—इन साधनों के पश्चात साधक को श्रवण, मनन और ध्यान करना चाहिए। श्रवण का अर्थ है—वेदान्त शास्त्रों और गुरु के उपदेशों को श्रद्धा से सुनना। यह श्रवण केवल श्रुति के शब्द सुनना नहीं, बल्कि उन बातों को पूरी भावना, विवेक और लगन से समझना है। इसके बाद आता है "मनन"—जो सुना है, उस पर गम्भीरता से विचार करना, सभी शंकाओं का समाधान प्राप्त करना और स्पष्ट रूप से आत्मा-ब्रह्म का ज्ञान अर्जित करना। यह ज्ञान केवल शास्त्रीय या बौद्धिक न होकर अनुभव की ओर ले जाने वाला होना चाहिए।
श्रवण और मनन के बाद अत्यंत आवश्यक है "सतत्त्व-ध्यानं चिरं नित्यनिरन्तरं"—अर्थात आत्म-तत्त्व का निरन्तर, दीर्घकाल तक ध्यान। यह ध्यान केवल समय-समय पर किया गया ध्यान नहीं है, बल्कि यह निरन्तर, गम्भीर और अखण्ड भावना से किया गया अभ्यास है जिसमें साधक का मन विषयों से हटकर पूर्णतः आत्मा में लीन हो जाता है। इस प्रकार ध्यान के द्वारा साधक का चित्त शुद्ध और एकाग्र होता है, जिससे वह "अविकल्प अवस्था"—अर्थात द्वैत से रहित, निर्भेद ब्रह्मज्ञान की अवस्था को प्राप्त करता है।
यह निर्विकल्प अवस्था वही स्थिति है जिसमें ज्ञानी जानता है कि वह शरीर, मन, बुद्धि नहीं है, बल्कि केवल आत्मा है—सद्, चित्, आनन्द स्वरूप। यह अविकल्प अवस्था साधक को संसार के समस्त दुःखों और बन्धनों से मुक्त कर देती है। तब वह विद्वान "निर्वाणसुखं समृच्छति"—अर्थात पूर्ण शान्ति, आनन्द और आत्मतृप्ति को प्राप्त करता है। यह सुख कोई इन्द्रियजन्य सुख नहीं, बल्कि आत्मस्वरूप में स्थित होने से प्राप्त शाश्वत, अचल, अद्वितीय आनन्द है।
इस प्रकार शंकराचार्य ने इन दो श्लोकों में मोक्ष के सम्पूर्ण साधन-चक्र को संक्षेप में बताया है—वैराग्य से प्रारम्भ, फिर शम, दम, तितिक्षा आदि के द्वारा चित्तशुद्धि, फिर श्रवण, मनन, ध्यान के द्वारा आत्मज्ञान और अन्त में निर्विकल्प अवस्था में प्रतिष्ठित होकर मोक्ष की प्राप्ति। यह पथ स्पष्ट, विवेकपूर्ण और अनुभव-सिद्ध है, जिससे प्रत्येक मुमुक्षु को प्रेरणा मिलती है कि वह आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अपने जीवन को ले जा सके।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!