Total Blog Views

Translate

शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 73वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 73वां श्लोक"

"प्रश्न विचार"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

यद्बोद्धव्यं तवेदानीमात्मानात्मविवेचनम् । 

तदुच्यते मया सम्यक् श्रुत्वात्मन्यवधारय ॥ ७३ ॥

अर्थ:-जो आत्मानात्मविवेक अब तुझे जानना चाहिये वह मैं समझाता हूँ, तू उसे भलीभाँति सुन कर अपने चित्त में स्थिर कर।

विवेकचूडामणि का यह श्लोक आत्मानात्मविवेक की महत्ता को उद्घाटित करता है। इसमें आत्मा और अनात्मा का भेद करना—यानी यह जानना कि वास्तव में "मैं कौन हूँ"—इस ज्ञान के मार्ग का मूल उद्देश्य है। शंकराचार्य शिष्य से कहते हैं कि अब जो ज्ञान तुझे प्राप्त करना है, वह है आत्मा और अनात्मा के बीच का विवेक, जिसे जानना अत्यावश्यक है। यह विवेक न केवल शास्त्रों के अध्ययन से, बल्कि गुरु के उपदेश, श्रवण, मनन और निदिध्यासन के माध्यम से स्पष्ट होता है।

श्लोक में शंकराचार्य कहते हैं: "यद्बोद्धव्यं तवेदानीम्" अर्थात् अब तुझे जो जानना आवश्यक है, वह है "आत्मानात्मविवेचनम्"—आत्मा और अनात्मा का विवेक। ‘आत्मा’ वह है जो सदा है, जो चेतन है, जो साक्षी रूप से समस्त अनुभवों का अवलोकन करता है, और ‘अनात्मा’ वह है जो बदलता है, जो जड़ है, जो नश्वर है—जैसे शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि इत्यादि। मनुष्य की भूल यह होती है कि वह अनात्मा को आत्मा समझ बैठता है और उसी में अपनी पहचान बना लेता है।

यह भ्रम ही संसार में बन्धन और दुःख का कारण बनता है। जब तक यह भेद नहीं स्पष्ट होता, तब तक आत्मा के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए शंकराचार्य कहते हैं कि "तदुच्यते मया सम्यक्"—मैं अब इसे तुझे सम्यक् रूप से, अर्थात् पूर्ण स्पष्टता और सम्यक् तर्क के साथ बताने जा रहा हूँ। यहाँ गुरु की कृपा और मार्गदर्शन का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि आत्मा और अनात्मा का विवेक कोई सतही विचार नहीं, बल्कि गहन चिंतन और अनुभूति का विषय है।

श्लोक का अंतिम भाग कहता है: "श्रुत्वात्मन्यवधारय"—इस विवेक को सुनने के बाद तू अपने अंतःकरण में इसे दृढ़ता से धारण कर। इसका तात्पर्य यह है कि केवल श्रवण से काम नहीं चलेगा; इस ज्ञान को हृदय में उतारकर उसमें स्थिर होना पड़ेगा। जैसे किसी बीज को धरती में रोपने के बाद उसकी निरंतर देखभाल करनी होती है, वैसे ही आत्मानात्मविवेक को जीवन में स्थिर करने के लिए नित्य चिंतन और अभ्यास करना आवश्यक है।

यह श्लोक शिष्य को आत्मज्ञान की दिशा में प्रवेश कराने वाला एक द्वार है। यहाँ शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मानात्मविवेक ही वह आरम्भिक बिन्दु है जहाँ से ज्ञान की यात्रा प्रारंभ होती है। यही विवेक भवबन्धन से मुक्ति का माध्यम है। जब साधक इस विवेक को अपने हृदय में स्थिर कर लेता है, तब वह शरीर, मन, बुद्धि आदि को अनात्मा समझते हुए स्वयं को उनके साक्षी आत्मा के रूप में अनुभव करने लगता है। यही अनुभव उसे परम शान्ति और मोक्ष की ओर ले जाता है।

इस प्रकार, यह श्लोक आत्मबोध की दिशा में एक महत्वपूर्ण संकेत है जो साधक को अपनी साधना के मार्ग पर एकाग्रता, श्रद्धा और स्थिरता के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

"You can read this blog in any language. All you need to do is click on the translate button provided at the top left corner of the page. By clicking it, you can read it in your preferred language."

आप इस ब्लॉग को किसी भी भाषा में पढ़ सकते हैं आपको बस इतना करना है कि पेज के ऊपर बायें हिस्से में ट्रांसलेट का बटन दिया गया है। आप उसे क्लिक कर के अपनी मनपसंद भाषा में इसे पढ़ सकते हैं।


Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."

www.sadhanapath.in