"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 74वां श्लोक"
"स्थूल शरीर का वर्णन"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मज्जास्थिमेदः पलरक्तचर्म-त्वगाह्वयैर्धातुभिरेभिरन्वितम्
पादोरुवक्षोभुजपृष्ठमस्तकै -रङ्गैरुपाङ्गैरुपयुक्तमेतत्
॥ ७४ ॥
अहंममेति प्रथितं शरीरं मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः ।
अर्थ:-मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा-इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्षःस्थल (छाती), भुजा, पीठ और मस्तक आदि अंगोपांगों से युक्त, 'मैं और मेरा' रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आश्रय रूप देह को विद्वान् लोग 'स्थूल शरीर' कहते हैं।
यह श्लोक आदिशंकराचार्य के प्रसिद्ध ग्रंथ विवेकचूडामणि का है, जिसमें वे आत्मा और अनात्मा के विवेक के माध्यम से आत्मबोध की ओर साधक को निर्देशित करते हैं। इस श्लोक में उन्होंने 'स्थूल शरीर' की यथार्थ पहचान कराई है, जिससे मनुष्य सामान्यतः 'मैं' और 'मेरा' की भावना जोड़ता है। यह देह वास्तव में सात धातुओं—मज्जा (गूदा), अस्थि (हड्डियाँ), मेद (चर्बी), मांस (मांसपेशियाँ), रक्त (खून), चर्म (त्वचा), और त्वक् (बाहरी चमड़ी)—से बना हुआ है। ये सभी तत्व प्रकृति के ही अंग हैं और निरंतर परिवर्तनशील हैं।
इस शरीर में जो अंग-प्रत्यंग हैं—पाँव, जाँघें, वक्षःस्थल, भुजाएँ, पीठ और मस्तक आदि—ये सब केवल शरीर की रचना के बाह्य और आंतरिक अवयव हैं। इन सबका सम्मिलित रूप, जिसमें अनेक जीव-विकार, विकृति और विनाश की प्रवृत्ति अंतर्निहित होती है, वही यह स्थूल शरीर है। परंतु अज्ञानवश जीव इस शरीर को ही 'मैं' समझ बैठता है और इसके संबंधों को 'मेरा' मानता है। यही 'अहं' और 'मम' की भ्रांति का मूल कारण है। 'अहं शरीर हूँ' और 'यह मेरा है'—इन दोनों मिथ्या विचारों का केन्द्र यही शरीर है।
शंकराचार्य इसे 'मोहास्पदं' कहते हैं—अर्थात यह शरीर अज्ञान से उत्पन्न मोह का आश्रय है। यह मोह ही जीव को बंधन में डाल देता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप—शुद्ध, अच्युत, निरपेक्ष आत्मा—को भूलकर इस नश्वर शरीर से अपनी पहचान जोड़ लेता है। यही जीव की सबसे बड़ी त्रुटि है, क्योंकि शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा, और आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है।
इस श्लोक का उद्देश्य साधक को यह स्मरण कराना है कि जब तक वह शरीर को ही 'स्वरूप' मानता रहेगा, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहेगा। विद्वान लोग—'बुधाः'—इस देह को केवल एक 'स्थूल शरीर' मानते हैं, न कि आत्मा। वे जानते हैं कि यह शरीर पंचमहाभूतों और सप्तधातुओं से बना है, नाशवान है, और आत्मा से सर्वथा भिन्न है। इसलिए वे इससे अपनी पहचान नहीं जोड़ते।
इस विवेचन का मर्म यही है कि साधक को चाहिए कि वह इस देह को मात्र एक उपकरण की भाँति देखे, जिससे आत्मसाधना की जा सकती है, न कि अपने स्वरूप के रूप में। देह के प्रति इस दृष्टिकोण का विकास ही विवेक है, जो साधना के पथ पर आरूढ़ होने की प्रथम आवश्यकता है। जब 'मैं शरीर नहीं हूँ' का अनुभव भीतर दृढ़ होता है, तब ही आत्मज्ञान की यात्रा प्रारंभ होती है। यही विवेकचूडामणि की शिक्षाओं का सार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!