"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 100वां श्लोक"
"सूक्ष्म शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
स्वप्नो भवत्यस्य विभक्त्यवस्था स्वमात्रशेषेण विभाति यत्र । स्वप्ने तु बुद्धिः स्वयमेव जाग्रत्-कालीननानाविधवासनाभिः ।
कर्त्रादिभावं प्रतिपद्य राजते यत्र स्वयंज्योतिरयं परात्मा ॥ १००॥
अर्थ:-स्वप्न इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था है, जहाँ यह स्वयं ही बचा हुआ भासता है। स्वप्न में, जहाँ यह स्वयं प्रकाश परात्मा शुद्ध चेतन ही [ भिन्न-भिन्न पदार्थों के रूप में] भासता है, बुद्धि जाग्रत्कालीन नाना प्रकार की वासनाओं से, कर्ता आदि भावों को प्राप्त होकर स्वयं ही प्रतीत होने लगती है।
शंकराचार्यजी यहाँ स्वप्नावस्था का विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि जैसे जाग्रत अवस्था में आत्मा देह और इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य जगत का अनुभव करता है, वैसे ही स्वप्न में वही आत्मा अंतःकरण में संचित वासनाओं और संस्कारों के आधार पर आभासित होता है। स्वप्नावस्था को "विभक्त्यवस्था" कहा गया है, क्योंकि इसमें जाग्रत अवस्था से भिन्न रूप में अनुभव उत्पन्न होते हैं। स्वप्न का कोई बाहरी वस्तुगत आधार नहीं होता, फिर भी आत्मा अपनी ज्योति से ही उसे वास्तविक की तरह अनुभव करता है। यह दिखाता है कि चेतना स्वयं प्रकाशमान है, और वह बाह्य साधनों के बिना भी अनुभव कराने की समर्थ है।
स्वप्न में देखे जाने वाले दृश्य, व्यक्ति, स्थान और परिस्थितियाँ वास्तव में बाह्य जगत से संबंध नहीं रखतीं, वे केवल जाग्रत अवस्था में संचित वासनाओं और स्मृतियों की अभिव्यक्ति मात्र होती हैं। बुद्धि यहाँ स्वयं ही सक्रिय होकर उन वासनाओं को रूप, रंग और अर्थ प्रदान करती है। स्वप्न में हम कभी कर्ता, कभी भोक्ता, कभी विजयी, कभी पराजित होते हैं, यह सब मात्र बुद्धि की कल्पना है, जो आत्मा की चेतना से आलोकित होकर जीव को वास्तविक प्रतीत होती है। इस प्रकार स्वप्नावस्था आत्मा के स्वरूप और वासनाओं की परस्पर क्रिया का परिणाम है।
शंकराचार्य का उद्देश्य यह दिखाना है कि जैसे जाग्रत अवस्था के अनुभवों को हम वास्तविक मानते हैं, वैसे ही स्वप्न के अनुभव भी स्वप्नकाल में उतने ही वास्तविक प्रतीत होते हैं। परंतु जाग्रत होने पर हम उन्हें मिथ्या मान लेते हैं। इसी प्रकार, जब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान लेती है, तब उसे यह पूरा संसार, चाहे वह जाग्रत हो या स्वप्न का, मिथ्या ही प्रतीत होता है। सत्य केवल आत्मा की स्वयं ज्योति है, जो किसी अवस्था पर निर्भर नहीं।
स्वप्नावस्था का यह विवेचन साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह समझना आवश्यक है कि आत्मा किसी भी अवस्था में बदलती नहीं, केवल उसकी अभिव्यक्ति बुद्धि और वासनाओं के आधार पर बदलती हुई प्रतीत होती है। जाग्रत में बाह्य इन्द्रियों के माध्यम से और स्वप्न में अंतःकरण की छवियों के माध्यम से आत्मा प्रकाशमान होती है। परंतु आत्मा इन दोनों से परे है, वह न जाग्रत है, न स्वप्न, न सुषुप्ति, वह केवल साक्षी है।
स्वप्न में जब हम आनंद, दुःख, भय या सुख का अनुभव करते हैं, तो उस समय वे उतने ही वास्तविक प्रतीत होते हैं, जितना जाग्रत अवस्था में घटित कोई अनुभव। किंतु जाग्रत होने पर उनका मिथ्यात्व प्रकट हो जाता है। यही सिद्धांत पूरे संसार के लिए भी लागू होता है। जब तक जीव अविद्या में है, तब तक उसे यह संसार वास्तविक प्रतीत होता है। परंतु जब ज्ञान का प्रकाश होता है, तब यह संसार स्वप्नवत मिथ्या मालूम पड़ता है।
इस प्रकार, शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा स्वयं प्रकाश है। स्वप्नावस्था यह प्रमाणित करती है कि आत्मा का अस्तित्व बाह्य साधनों पर निर्भर नहीं है। वासनाओं के सहारे भी बुद्धि जब जगत रच लेती है और आत्मा उसे अनुभव कराता है, तो यह सिद्ध होता है कि आत्मा ही सब अनुभवों का आधार है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति – ये सब अवस्थाएँ आत्मा के परमार्थिक स्वरूप को ढकने वाली हैं, किंतु ज्ञानी जान लेता है कि वह साक्षी चैतन्य ही वास्तविक है। यही विवेक साधक को बंधन से मुक्त कर मोक्ष की ओर ले जाता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!