"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 101वां श्लोक"
"सूक्ष्म शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः ।
यस्मादसङ्गस्तत एव कर्मभि-र्न लिप्यते किञ्चिदुपाधिना कृतैः ॥ १०१ ॥
अर्थ:-बुद्धि ही जिसकी उपाधि है ऐसा वह सर्वसाक्षी उस (बुद्धि) के किये हुए कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह असंग है अतः उपाधिकृत कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं हो सकता।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की एक अत्यंत गूढ़ और महत्त्वपूर्ण शिक्षा देता है। इसमें शंकराचार्य यह स्पष्ट कर रहे हैं कि आत्मा, जो वास्तव में प्रत्येक प्राणी का स्वरूप है, कभी भी कर्मों से बंधता नहीं। आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। वह केवल साक्षी है, देखने वाला है, लेकिन किसी भी कर्म या अनुभव में लिप्त नहीं होता। बुद्धि और अन्य उपाधियाँ जैसे मन, इन्द्रियाँ और शरीर केवल आत्मा के सान्निध्य में कार्य करती हैं। इन्हीं के माध्यम से कर्म किए जाते हैं और उनके फल भोगे जाते हैं, लेकिन आत्मा उन सबके पीछे रहते हुए भी उनसे अप्रभावित रहता है।
शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा की उपाधि केवल धी अर्थात बुद्धि है। बुद्धि ही वह माध्यम है जिसके द्वारा जीव यह मानता है कि "मैं करता हूँ" और "मैं भोगता हूँ"। किंतु वास्तव में आत्मा इनमें से कुछ भी नहीं करता। आत्मा केवल साक्षी है, साक्षी का अर्थ है—निरपेक्ष देखने वाला। जैसे सूर्य केवल प्रकाश देता है, परंतु उसमें प्रकाशित होने वाले कार्यों में उसका कोई संबंध नहीं होता, वैसे ही आत्मा बुद्धि और इन्द्रियों के कार्यों को प्रकाशित करता है, लेकिन उनमें लिप्त नहीं होता।
यहाँ एक गहन दृष्टांत दिया जा सकता है। जैसे दर्पण में विभिन्न वस्तुएँ प्रतिबिंबित होती हैं, परंतु दर्पण स्वयं उन वस्तुओं से प्रभावित नहीं होता, वैसे ही आत्मा के साक्षित्व में बुद्धि के संकल्प, विकल्प, कर्म और उनके फल घटित होते रहते हैं, पर आत्मा उनमें तनिक भी लिप्त नहीं होता। यही कारण है कि आत्मा को असंग कहा गया है। असंग का अर्थ है—जिससे किसी प्रकार का संयोग या चिपकाव नहीं हो सकता।
कर्मों से बंधन का अनुभव केवल उपाधियों के कारण होता है। जब मनुष्य अपने को शरीर या बुद्धि मान लेता है, तभी वह कर्मों के प्रभाव में आकर सुख-दुःख का अनुभव करता है। परंतु जब वह यह जान लेता है कि "मैं न तो शरीर हूँ, न बुद्धि हूँ, न ही इनसे किए गए कर्मों का कर्ता हूँ, बल्कि मैं तो केवल साक्षी आत्मा हूँ"—तभी वह कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप असंग और निरपेक्ष है, इसलिए उसमें कर्मों का कोई अंश भी चिपक नहीं सकता।
यह शिक्षा साधक के लिए अत्यंत प्रेरणादायी है। क्योंकि संसार में हम लगातार यह अनुभव करते हैं कि हमारे कर्म हमें बाँधते हैं, हमारे अच्छे या बुरे कार्य सुख-दुःख के रूप में फल देते हैं। परंतु यदि हम विवेकपूर्वक विचार करें, तो पाएँगे कि कर्मों का बंधन वास्तव में आत्मा पर नहीं, बल्कि केवल उपाधियों पर है। आत्मा तो मुक्त ही है। यह जान लेना ही आत्मज्ञान की ओर पहला कदम है। जब साधक इस सत्य को अनुभव करता है, तो वह कर्मों में रहते हुए भी कर्म से परे हो जाता है। यही गीता में कहा गया है—“कर्मण्यकर्म यः पश्येत्”—जो कर्मों में अकर्म का दर्शन करता है, वही ज्ञानी है।
अतः इस श्लोक का सार यही है कि आत्मा नित्य, असंग और साक्षी है। बुद्धि और अन्य उपाधियाँ उसके साथ जुड़कर कर्म करती हैं, लेकिन आत्मा कभी उनमें लिप्त नहीं होता। साधक को अपने को इस आत्मस्वरूप के रूप में पहचानना चाहिए और उपाधियों से भिन्नता का दृढ़ अनुभव करना चाहिए। यही मुक्ति का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!