"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 99वां श्लोक"
"सूक्ष्म शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
इदं शरीरं शृणु सूक्ष्मसंज्ञितं लिङ्गं त्वपञ्चीकृतभूतसम्भवम् ।
सवासनं कर्मफलानुभावकं स्वाज्ञानतोऽनादिरुपाधिरात्मनः ॥ ९९ ॥
अर्थ:-यह सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर अपंचीकृत भूतों से उत्पन्न हुआ है; यह वासना युक्त होकर कर्म फलों का अनुभव कराने वाला है। और स्वस्वरूप का ज्ञान न होने के कारण आत्मा की अनादि उपाधि है।
इस श्लोक में आदिशंकराचार्य सूक्ष्म शरीर का विवेचन करते हैं। स्थूल शरीर के बाद साधक को यह समझना आवश्यक है कि जीवात्मा के साथ एक और शरीर जुड़ा हुआ है, जिसे ‘सूक्ष्म शरीर’ या ‘लिङ्ग शरीर’ कहा जाता है। यह शरीर स्थूल इन्द्रियों से दिखाई नहीं देता, क्योंकि यह अपञ्चीकृत भूतों से निर्मित होता है। पञ्चभूतों के पंचीकरण की प्रक्रिया से स्थूल जगत और स्थूल शरीर उत्पन्न होता है, जबकि अपञ्चीकृत या सूक्ष्म अवस्था में ही जब ये भूत रहते हैं, तब उनसे यह सूक्ष्म शरीर बनता है। इस कारण इसे केवल बौद्धिक चिंतन, शास्त्र और आत्मानुभूति द्वारा ही समझा जा सकता है।
सूक्ष्म शरीर की विशेषता है कि यह वासनाओं और कर्मों के संस्कारों को साथ लिए हुए रहता है। स्थूल शरीर के नष्ट होने पर भी जीवात्मा का अंत नहीं होता, क्योंकि वासनाएँ और कर्मफल का भोग करने की प्रवृत्ति शेष रहती है। यही प्रवृत्ति जीव को नए जन्म की ओर ले जाती है। अतः सूक्ष्म शरीर ही जीव के पुनर्जन्म का कारण बनता है। स्थूल शरीर मरने पर पंचमहाभूतों में विलीन हो जाता है, किन्तु यह सूक्ष्म शरीर कर्म और वासनाओं के साथ जीव को नए शरीर में प्रविष्ट कराता है। इस प्रकार यह कर्मफल का अनुभव कराने वाला माध्यम है।
सूक्ष्म शरीर की एक और विशेषता यह है कि यह अनादि उपाधि है। अर्थात् इसका कोई प्रारम्भ नहीं है। जब से जीव ने आत्मस्वरूप को भुलाया है, तभी से यह सूक्ष्म शरीर उसके साथ जुड़ा हुआ है। वास्तव में आत्मा का न तो जन्म है और न मृत्यु, वह शुद्ध, मुक्त और निरपेक्ष है। परन्तु अज्ञान के कारण जीव स्वयं को शरीर और मन मान लेता है। यही अज्ञान ही सूक्ष्म शरीर के रूप में प्रकट होता है। जब तक यह अज्ञान दूर नहीं होता, तब तक जीव आत्मा से भिन्न एक बन्धित सत्ता के रूप में अनुभव करता है।
सूक्ष्म शरीर में ही ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, प्राण और अन्तःकरण सम्मिलित रहते हैं। श्रवण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ सूक्ष्म शरीर के ही अंग हैं। इसी प्रकार प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान – ये पाँच प्राण भी सूक्ष्म शरीर में ही स्थित होते हैं। साथ ही मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार – ये चार अन्तःकरण भी सूक्ष्म शरीर के अंग हैं। इन सभी के माध्यम से जीव अनुभव करता है, सोचता है, इच्छा करता है और कर्म करता है।
सूक्ष्म शरीर के कारण ही जीव को सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि का अनुभव होता है। स्थूल शरीर केवल साधन मात्र है, परन्तु अनुभव करने वाला तत्त्व सूक्ष्म शरीर ही है। यही वासनाओं का भण्डार है, और यही अज्ञान से उत्पन्न होकर आत्मा को सीमित और बन्धित प्रकट करता है। जब साधक विवेक और ध्यान के माध्यम से यह जान लेता है कि सूक्ष्म शरीर भी आत्मा नहीं है, तब वह अपनी सच्ची सत्ता – शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा को पहचान लेता है।
इस प्रकार इस श्लोक में शंकराचार्य यह स्पष्ट कर रहे हैं कि सूक्ष्म शरीर अज्ञान का परिणाम है। यह कर्म और वासनाओं का वाहक है और जीव को बार-बार जन्म-मरण के चक्र में घुमाता है। जब तक आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता, यह उपाधि अनादि रूप से बनी रहती है। परन्तु ज्ञान होने पर जीव जान लेता है कि न मैं स्थूल शरीर हूँ और न सूक्ष्म शरीर, मैं तो शुद्ध ब्रह्मस्वरूप आत्मा हूँ। यही ज्ञान मोक्ष का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!