"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 102वां श्लोक"
"सूक्ष्म शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
सर्वव्यापृतिकरणं लिंगमिदं स्याच्चिदात्मनः पुंसः । वास्यादिकमिव तक्ष्णस्तेनैवात्मा भवत्यसङ्गोयम् ॥ १०२ ॥
अर्थ:-यह लिंगदेह चिदात्मा पुरुष के सम्पूर्ण व्यापारों का करण है, जिस प्रकार बढ़ई का बसूला होता है। इसीलिये यह आत्मा असंग है।
इस श्लोक में शंकराचार्य जी आत्मा और लिङ्गशरीर के बीच के सम्बन्ध को स्पष्ट कर रहे हैं। यहाँ कहा गया है कि लिङ्गशरीर, जिसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जाता है, चिदात्मा पुरुष के समस्त व्यापारों का साधन है। जैसे कोई बढ़ई अपने काम के लिए बसूले (कुल्हाड़ी, छेनी आदि उपकरण) का प्रयोग करता है, वैसे ही आत्मा संसार के अनुभवों और कर्मों को करने के लिए लिङ्गशरीर का प्रयोग करता है। परन्तु जिस प्रकार बसूला बढ़ई का केवल एक उपकरण है, उसी प्रकार यह लिङ्गशरीर भी आत्मा का मात्र उपकरण है, आत्मा स्वयं इसमें लिप्त नहीं होता।
लिङ्गशरीर वास्तव में सूक्ष्म अवयवों से बना हुआ है – मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ तथा प्राण – ये सब मिलकर सूक्ष्म शरीर की रचना करते हैं। यही लिङ्गशरीर कारण बनता है कि जीव को सुख-दुःख, ज्ञान-अज्ञान, स्वप्न और जाग्रत अवस्था के अनुभव होते हैं। लेकिन आत्मा, जो चैतन्य स्वरूप है, इनमें कभी फँसता नहीं। आत्मा केवल साक्षी है, न कर्म करता है, न कर्मों से बँधता है।
उदाहरण से बात और भी स्पष्ट होती है। बढ़ई लकड़ी काटने, आकार देने, सजाने के लिए बसूले का प्रयोग करता है। लकड़ी पर होने वाले सभी परिवर्तन बसूले के द्वारा ही होते हैं, पर बढ़ई का स्वरूप बसूले से एक नहीं हो जाता। बसूला तो केवल साधन है, कर्म का माध्यम है। ठीक इसी तरह आत्मा अपने कर्मों और अनुभवों को प्रकट करने के लिए लिङ्गशरीर का प्रयोग करता है। सभी इन्द्रियों और मानसिक क्रियाओं का संचालन इसी लिङ्गशरीर के माध्यम से होता है। लेकिन आत्मा इस लिङ्गशरीर में बँधता नहीं, वह निरंतर असंग ही रहता है।
यहाँ शंकराचार्य जी यह भी इंगित करते हैं कि जीव की असली पहचान आत्मा है, न कि यह सूक्ष्म शरीर। अज्ञान के कारण जीव स्वयं को इस लिङ्गशरीर के साथ अभिन्न मान बैठता है और इसी कारण जन्म, मृत्यु, सुख-दुःख, बन्धन और मोक्ष के चक्र में फँसता है। यदि यह विवेक हो जाए कि मैं यह लिङ्गशरीर नहीं हूँ, मैं तो उस आत्मा का स्वरूप हूँ जो सदा असंग, निर्विकार और शुद्ध है, तब बन्धन से मुक्ति सम्भव है।
इस शिक्षा का व्यावहारिक महत्व भी गहरा है। जब तक हम अपने को शरीर, मन और इन्द्रियों के साथ जोड़कर देखते हैं, तब तक हर सुख-दुःख हमें प्रभावित करता है। लेकिन जब हम यह जान लेते हैं कि यह सब साधन मात्र हैं, आत्मा तो इन सबसे परे है, तब जीवन में वैराग्य, शान्ति और आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। आत्मा पर कोई कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, जैसे आकाश पर बादलों का धुआँ या धूल प्रभाव नहीं डालते।
अतः श्लोक का सार यह है कि लिङ्गशरीर आत्मा का साधन है, स्वयं आत्मा नहीं। आत्मा इनसे सर्वथा परे, असंग और स्वतंत्र है। यही आत्मा की वास्तविक पहचान है। जो साधक इस भेद को समझ लेता है, वही धीरे-धीरे संसारिक आसक्तियों से मुक्त होकर आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है। यही विवेक और वैराग्य की पूर्णता है, और यही आत्मज्ञान का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!