"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 103वां श्लोक"
"सूक्ष्म शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः सौगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः ।
बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव श्रोत्रादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः ॥ १०३ ॥
अर्थ:-नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अन्धापन, धुँधलापन अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों के ही धर्म हैं; इसी प्रकार बहरापन, गूँगापन आदि भी श्रोत्रादि के ही धर्म हैं; सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं।
इस श्लोक में आदिशंकराचार्य आत्मा और इन्द्रियों के बीच का भेद स्पष्ट करते हैं। यहाँ वे यह समझाते हैं कि अन्धापन, धुँधलापन या स्पष्ट देखना जैसी अवस्थाएँ नेत्रों की विशेषताएँ हैं, आत्मा की नहीं। इसी प्रकार कानों से न सुन पाना, बहरापन, गूँगापन आदि भी श्रोत्र, वाणी और अन्य इन्द्रियों से सम्बन्धित हैं, न कि आत्मा से। आत्मा तो केवल साक्षी है, जो इन सबका अनुभव करता है, परन्तु स्वयं इनमें लिप्त नहीं होता। जब नेत्र स्वस्थ होते हैं तब मनुष्य स्पष्ट रूप से देख सकता है और जब नेत्र में दोष हो जाता है तब दृष्टि बाधित होती है। परंतु यह परिवर्तन केवल नेत्रों में होता है, आत्मा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
इसी प्रकार यदि कान सुनने की शक्ति खो बैठते हैं, तो व्यक्ति बहिरा हो जाता है, यदि वाणी में दोष आ जाता है, तो व्यक्ति गूंगा हो जाता है। ये सभी अवस्थाएँ केवल शारीरिक उपकरणों की हैं। आत्मा इनमें कभी कोई दोष ग्रहण नहीं करती। आत्मा का स्वरूप न तो अन्ध हो सकता है, न बहिरा, न मूक। आत्मा का धर्म केवल चैतन्य होना है। वह सदा शुद्ध, पूर्ण और निरुपाधिक है। जैसे सूर्य स्वयं प्रकाशस्वरूप होते हुए भी बादलों के कारण ढका हुआ प्रतीत होता है, परंतु वास्तव में सूर्य पर कोई आच्छादन नहीं होता, उसी प्रकार आत्मा पर भी किसी इन्द्रिय की अशक्ति या दोष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
जीव सामान्यतया अपने को इन्द्रियों से तादात्म्य कर लेता है। जब नेत्र में दोष होता है तो वह सोचता है—“मैं अंधा हूँ”, जब कान सुन नहीं पाते तो वह मान लेता है—“मैं बहरा हूँ”। यह अज्ञान के कारण है। वास्तव में “मैं” आत्मा हूँ, जो इन दोषयुक्त नेत्रों और कानों को केवल देखता और अनुभव करता है। आत्मा कभी अन्ध नहीं होती, केवल नेत्र अन्ध होते हैं। आत्मा कभी बहरी नहीं होती, केवल कान बहरे होते हैं। यह विवेक ही शंकराचार्य इस श्लोक के माध्यम से कराना चाहते हैं।
जब साधक इस विवेक को आत्मसात् कर लेता है कि सभी दोष और गुण केवल शरीर तथा इन्द्रियों में हैं, आत्मा में नहीं, तभी उसे आत्मस्वरूप की स्थिरता प्राप्त होती है। यही ज्ञान बन्धन से मुक्ति का द्वार खोलता है। शरीर नश्वर है और उसमें अनेक प्रकार के दोष समय के साथ उत्पन्न होते रहते हैं। बचपन में नेत्र तीक्ष्ण होते हैं, वृद्धावस्था में मंद हो जाते हैं। कान पहले सब कुछ सुन पाते हैं, बाद में सुनने की क्षमता खो देते हैं। लेकिन आत्मा जन्म से मृत्यु तक समान ही रहती है—न उस पर बुढ़ापा आता है, न बीमारी, न किसी प्रकार की कमी।
आत्मा की यही असंगता और शुद्धता उसे ब्रह्मस्वरूप बनाती है। जो साधक इस सत्य को जानकर इन्द्रियों की विकृतियों से अपने को अलग कर लेता है, वही साक्षीभाव में स्थित होता है। उसके लिए यह समझना कठिन नहीं रहता कि अन्धता या मूकता केवल देहधर्म है, आत्मधर्म नहीं। अतः आत्मा को इन परिवर्तनों से जोड़कर देखना अज्ञान है। विवेक के अभ्यास से साधक इस भ्रांति से मुक्त होकर आत्मस्वरूप की अनुभूति करता है।
इस श्लोक का गूढ़ संदेश यही है कि हम अपने आपको इन्द्रियों से नहीं, आत्मा से पहचानें। नेत्र, कान, वाणी आदि मात्र उपकरण हैं, जो आत्मा के प्रकाश से कार्य करते हैं। जब वे उपकरण दोषयुक्त हो जाते हैं, तब उनका कार्य बाधित होता है, परंतु आत्मा का प्रकाश कभी मंद नहीं पड़ता। यही आत्मा के साक्षीरूप होने की पुष्टि है और यही आत्मज्ञान का मूल आधार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!