"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 104वां श्लोक"
"प्राण के धर्म"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
उच्छ्वासनिःश्वासविजृम्भणक्षुत्-प्रस्पन्दनाद्युत्क्रमणादिकाः क्रियाः ।
प्राणादिकर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः
प्राणस्य धर्मावशनापिपासे ॥ १०४ ॥
अर्थ:-श्वास-प्रश्वास, जम्हाई, छींक, काँपना और उछलना आदि क्रियाओं को तत्त्वज्ञ प्राणादि का धर्म बतलाते हैं तथा क्षुधा-पिपासा भी प्राण ही के धर्म हैं।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने प्राण के कार्यों और धर्मों का विस्तार से उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि श्वास-प्रश्वास, जम्हाई लेना, छींक आना, शरीर का काँपना, अंगों का खिंचाव या उछलना जैसी स्वाभाविक क्रियाएँ प्राण की ही गतिविधियाँ हैं। इनके अतिरिक्त भूख और प्यास भी प्राण की ही धर्म-स्वरूप अवस्थाएँ हैं। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि इन क्रियाओं का संबंध आत्मा से नहीं है, बल्कि सूक्ष्म शरीर में स्थित प्राण के धर्म से है। जैसे आँखों का धर्म देखना है, कान का धर्म सुनना है, वैसे ही प्राण का धर्म शरीर को जीवित रखने वाली श्वसन क्रियाओं और आहार की आवश्यकता से जुड़ा हुआ है।
जब हम गहराई से विचार करते हैं तो पाते हैं कि हमारा सम्पूर्ण शारीरिक जीवन प्राण पर आधारित है। प्राण का अर्थ केवल साँस लेना-छोड़ना नहीं है, बल्कि यह वह जीवनशक्ति है जो पूरे शरीर को चलाती है। यदि यह प्राण न रहे तो शरीर मृत हो जाता है। इसी कारण शास्त्रों में कहा गया है कि प्राण ही जीवित प्राणी और मृत शरीर में अंतर करने वाला तत्त्व है। शंकराचार्य बताते हैं कि प्राण की गति से ही हमें भूख लगती है, प्यास लगती है, और शरीर अपनी सामान्य गतिविधियाँ कर पाता है। इन क्रियाओं के बिना जीवित रहना संभव नहीं।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि आत्मा इन क्रियाओं से परे और असंग है। आत्मा स्वयं न तो भूख-प्यास अनुभव करती है, न ही श्वास-प्रश्वास करती है। यह सब शरीर और प्राण की कार्य-प्रणाली है। आत्मा तो मात्र साक्षी है, जो इन क्रियाओं का अनुभव करता है परन्तु उनमें लिप्त नहीं होता। जैसे सूर्य केवल प्रकाश देता है, परंतु बादल, हवा या पृथ्वी की गतिविधियों में नहीं उलझता, वैसे ही आत्मा शरीर और प्राण की क्रियाओं की साक्षी मात्र है।
शंकराचार्य का उद्देश्य यह बताना है कि साधक को इन भौतिक क्रियाओं को आत्मा के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। जब हमें भूख लगती है, प्यास लगती है या हम छींकते हैं, तो यह मान लेना कि "मैं भूखा हूँ" या "मैं प्यासा हूँ" अज्ञान है। सही दृष्टि यह है कि "यह शरीर भूखा है, यह शरीर प्यासा है"। आत्मा इनसे सर्वथा भिन्न और निरपेक्ष है। यही विवेक की दृष्टि है, जो साधक को आत्मा और शरीर-प्राण के बीच का भेद समझने में सक्षम बनाती है।
इस श्लोक का एक गहन रहस्य यह है कि साधक को अपने अनुभवों में यह पहचानना है कि जीवन के सारे जैविक कार्य प्राण के धर्म हैं, न कि आत्मा के। यदि यह स्पष्ट हो जाए तो जीव अपनी असली सत्ता, जो शुद्ध, चैतन्यमय और निरपेक्ष आत्मा है, का अनुभव कर सकता है। इस प्रकार यह श्लोक आत्मा और अनात्मा के भेद को स्पष्ट करता है और साधक को आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर करता है।
अतः इस श्लोक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि भूख-प्यास, श्वास-प्रश्वास और अन्य शारीरिक क्रियाएँ आत्मा नहीं, बल्कि प्राण का स्वाभाविक धर्म हैं। साधक को इनसे असंग रहकर आत्मा की नित्यता और शुद्धता को पहचानना चाहिए। यही विवेक और वैराग्य का आधार है, जो मोक्ष की ओर ले जाने वाला वास्तविक साधन है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!