"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 105वां श्लोक"
"अहंकार"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अन्तःकरणमेतेषु अहमित्यभिमानेन चक्षुरादिषु वर्म्मणि । तिष्ठत्याभासतेजसा ॥ १०५ ॥
अर्थ:-शरीर के अन्दर इन चक्षु आदि इन्द्रियों (इन्द्रियके गोलकों) में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अन्तःकरण 'मैं-पन' का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है।
यह श्लोक अत्यन्त गहन और सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि शरीर के भीतर स्थित अन्तःकरण किस प्रकार इन्द्रियों में व्याप्त होकर ‘मैं’ का अभिमान करता है और जीव को देहाभिमान में बाँध देता है। शंकराचार्य जी कहते हैं – “अन्तःकरणमेतेषु अहमित्यभिमानेन चक्षुरादिषु वर्म्मणि तिष्ठति आभासतेजसा।” इसका तात्पर्य यह है कि अन्तःकरण, जो मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का सम्मिलित रूप है, वह चिदाभास अर्थात् आत्मा के परावर्तित प्रकाश से प्रकाशित होकर इन्द्रियों में व्याप्त होता है। जैसे सूर्य का प्रकाश जल में प्रतिबिम्बित होकर चमकता है, वैसे ही आत्मचैतन्य का प्रतिबिम्ब अन्तःकरण में पड़ता है और वही चिदाभास कहलाता है। यही चिदाभास अन्तःकरण को चेतन प्रतीत कराता है।
जब अन्तःकरण इस प्रतिबिम्बित चैतन्य से प्रकाशित होकर इन्द्रियों में प्रविष्ट होता है, तब वह चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा कार्य करता है। इस समय उसमें ‘अहमिति अभिमानः’ अर्थात् ‘मैं देख रहा हूँ’, ‘मैं सुन रहा हूँ’, ‘मैं अनुभव कर रहा हूँ’ – ऐसी धारणा प्रकट होती है। वास्तव में देखना, सुनना या अनुभव करना आत्मा का धर्म नहीं है। आत्मा तो नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और निरपेक्ष है। वह केवल साक्षी है। परन्तु चिदाभास से युक्त अन्तःकरण इन्द्रियों में स्थिर होकर इन सब क्रियाओं का कर्ता होने का भाव ग्रहण कर लेता है। यही जीव का अहंभाव है।
आत्मा के साक्षित्व में मन और इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य करते हैं। किन्तु जब अन्तःकरण अहंकार रूपी वृत्ति के कारण यह मान लेता है कि ‘मैं ही कर्ता हूँ’, तभी अविद्या का आरम्भ होता है। इस अहंता और ममता के कारण जीव संसार के बन्धन में फँस जाता है। उदाहरणार्थ, नेत्र रूप से केवल दृश्य का ग्रहण होता है, परन्तु अन्तःकरण में जब अहंकार की वृत्ति उठती है, तो यह अनुभव होता है कि ‘मैं देख रहा हूँ’। इसी प्रकार श्रवण इन्द्रिय केवल ध्वनि का ग्रहण करती है, किन्तु अन्तःकरण से युक्त अहंकार यह मान लेता है कि ‘मैं सुन रहा हूँ’।
यहाँ पर ‘वर्म्मणि’ शब्द का प्रयोग शंकराचार्य जी ने किया है, जिसका अर्थ है आवरण अथवा खोल। जैसे शरीर की आँखें केवल उपकरण हैं, वैसे ही अन्य इन्द्रियाँ भी उपकरण मात्र हैं। इनके भीतर जो चेतनता का प्रकाश झलक रहा है, वह आत्मा का प्रत्यक्ष प्रकाश नहीं है, बल्कि उसका प्रतिबिम्ब है। उसी से जीव स्वयं को इन्द्रियों में प्रकट करता हुआ मान लेता है। यह मान्यता ही अहंता की जड़ है और यही कारण है कि आत्मा के साक्षी स्वरूप का विस्मरण हो जाता है।
इस श्लोक का संदेश यह है कि जीव का ‘मैं’पन वास्तव में आत्मा से नहीं, बल्कि चिदाभास से उत्पन्न है। आत्मा तो निष्क्रिय साक्षी है, किन्तु चिदाभास से प्रकाशित अन्तःकरण इन्द्रियों में स्थिर होकर कर्तृत्व और भोक्तृत्व का आभास देता है। जब तक यह भ्रम बना रहता है, तब तक जीव देह और इन्द्रियों को अपना स्वरूप मानता है और सुख-दुःख, राग-द्वेष, जन्म-मरण आदि में उलझा रहता है। किन्तु विवेकपूर्वक जब यह समझ में आ जाता है कि ‘मैं देखने वाला नेत्र नहीं हूँ, सुनने वाला कान नहीं हूँ, बल्कि इन सबका साक्षी चैतन्य आत्मा हूँ’, तभी मुक्ति का द्वार खुलता है।
अतः इस श्लोक के माध्यम से शंकराचार्य हमें यह सिखाते हैं कि हमें ‘अहमिति अभिमानः’ का त्याग करना चाहिए और आत्मा के शुद्ध साक्षी स्वरूप को पहचानना चाहिए। जब यह बोध स्थिर हो जाता है, तब अन्तःकरण का इन्द्रियों में स्थिर होना भी केवल उपकरण रूप से समझा जाता है और ‘मैं कर्ता हूँ’ का भ्रान्ति-बन्धन छूट जाता है। यही अद्वैत वेदांत का सार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!