"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 106वां श्लोक"
"अहंकार"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अहङ्कारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्ययम् । सत्त्वादिगुणयोगेन चावस्थात्रयमश्नुते ॥ १०६ ॥
अर्थ:-इसी को अहंकार जानना चाहिये। यही कर्ता, भोक्ता तथा मैं-पन का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है।
अहंकार का स्वरूप अत्यन्त गूढ़ और सूक्ष्म है, जिसे समझे बिना आत्मज्ञान की ओर बढ़ना सम्भव नहीं होता। विवेकचूड़ामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जी स्पष्ट करते हैं कि “अहंकारः स विज्ञेयः”—इसे ही अहंकार के रूप में जानना चाहिए। अहंकार का अर्थ है वह तत्त्व जो ‘मैं’ की भावना उत्पन्न करता है। जब सूक्ष्म शरीर का अन्तःकरण चिदाभास के प्रकाश से प्रभावित होता है, तब उसमें ‘मैं’ का अभिमान उत्पन्न होता है। यही अहंकार है। यह स्वयं आत्मा नहीं है, किन्तु आत्मा के निकट होने के कारण स्वयं को आत्मस्वरूप मान लेता है। यही कारण है कि जीव अपने को शरीर, मन और इन्द्रियों के साथ एक कर लेता है।
श्लोक में कहा गया है कि यही अहंकार कर्ता और भोक्ता है। वस्तुतः आत्मा कभी भी कर्ता या भोक्ता नहीं होता क्योंकि वह नित्य, शुद्ध और असंग है। किन्तु जब आत्मा का प्रतिबिम्ब बुद्धि में प्रकट होता है और वह मन तथा इन्द्रियों के साथ संलग्न होता है, तब कर्तृत्व और भोक्तृत्व का मिथ्या भाव उत्पन्न होता है। यही जीव का बन्धन है। उदाहरण के लिए, जब कोई मनुष्य किसी कार्य को करता है तो वास्तविक रूप से कार्य शरीर और इन्द्रियाँ करती हैं, किन्तु अहंकार कहता है—“मैंने यह किया।” इसी प्रकार जब सुख या दुःख का अनुभव होता है तो यह केवल मन की स्थिति है, लेकिन अहंकार उससे जुड़कर कहता है—“मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ।” यही भ्रम जीव को संसार में बाँधे रखता है।
आगे शंकराचार्य जी कहते हैं कि यही अहंकार सत्त्व, रजस और तमस—इन तीन गुणों के योग से जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं का अनुभव करता है। जाग्रत अवस्था में रजस प्रमुख रहता है और अहंकार अपने को शरीर और इन्द्रियों से एक मानकर बाह्य जगत का अनुभव करता है। स्वप्नावस्था में मन की चेष्टाएँ प्रबल होती हैं और अहंकार अपने को स्वप्न के दृश्य और कर्ता के रूप में अनुभव करता है। सुषुप्ति में तमस प्रधान होता है और अहंकार स्वयं को केवल अज्ञान में लिप्त अवस्था में रखता है, जहाँ अनुभव केवल ‘मैं कुछ नहीं जानता’ तक सीमित रहता है। इन तीनों अवस्थाओं के पार आत्मा सदा शुद्ध, नित्य और साक्षी स्वरूप रहता है, किन्तु अहंकार अपनी पहचान के भ्रम से इन अवस्थाओं को वास्तविक मान लेता है।
अहंकार का यही कार्य है कि वह आत्मा और शरीर-मन-इन्द्रियों के बीच सेतु का कार्य करता है। यह सेतु जब अज्ञान के कारण दृढ़ होता है, तो जीव का बन्धन प्रबल हो जाता है। किन्तु जब विवेक और वैराग्य के अभ्यास से साधक यह समझ लेता है कि अहंकार केवल एक उपाधि है, आत्मा का वास्तविक स्वरूप इससे परे है, तब वह धीरे-धीरे कर्तृत्व-भोक्तृत्व के मिथ्या भाव से मुक्त हो जाता है।
वेदान्त का प्रयोजन यही है कि साधक इस अहंकार के मिथ्या स्वरूप को पहचान ले। जब तक ‘मैं शरीर हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं सुखी-दुखी हूँ’ का भाव बना रहता है, तब तक आत्मज्ञान सम्भव नहीं है। जैसे सूर्य पर मेघ आच्छादित हो जाएँ तो वह दिखाई नहीं देता, वैसे ही आत्मा का साक्षात्कार अहंकार के आवरण से ढँक जाता है। अतः साधना का मूल उद्देश्य इस अहंकार को पार करना है।
अन्ततः यह समझना आवश्यक है कि अहंकार स्वयं सत्य नहीं है, वह केवल चैतन्य का प्रतिबिम्ब है। आत्मा का नित्य स्वरूप न कर्ता है, न भोक्ता, न अवस्थाओं से बँधा हुआ है। वह तो साक्षी मात्र है। जब यह सत्य साधक के अन्तःकरण में दृढ़ हो जाता है, तभी मोक्ष की प्राप्ति सम्भव होती है। इसीलिए शंकराचार्य जी इस श्लोक में विशेष रूप से अहंकार के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं ताकि साधक इसे जानकर आत्मा और अहंकार का भेद कर सके और परमात्मस्वरूप में स्थित हो सके।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!