"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 107वां श्लोक"
"अहंकार"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये ।
सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानन्दस्य नात्मनः ॥ १०७ ॥
अर्थ:-विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दुःखी होता है। सुख और दुःख इस अहंकार के ही धर्म हैं, नित्यानन्दस्वरूप आत्मा के नहीं।
यह श्लोक आत्मा और अहंकार के बीच के मौलिक भेद को अत्यंत सरलता से स्पष्ट करता है। शंकराचार्य यहाँ बताते हैं कि जब बाहरी विषय – इन्द्रियों से प्राप्त अनुभव – मन और बुद्धि के अनुकूल होते हैं, तो जीव स्वयं को सुखी मानता है, और जब वे विषय प्रतिकूल होते हैं, तो वह दुःखी हो जाता है। वास्तव में यह सुख और दुःख आत्मा के धर्म नहीं हैं, बल्कि केवल अहंकार के धर्म हैं। आत्मा तो सदा आनन्दस्वरूप, नित्य, निर्मल और अपरिवर्तनशील है। किन्तु अज्ञान के कारण आत्मा की पहचान अहंकार और अन्तःकरण से कर ली जाती है, और वही आत्मा स्वयं को सुखी या दुःखी मानने का भ्रम पाल लेता है।
जीव का यह अहंकार ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भाव में ही जीता है। जब कोई वस्तु, परिस्थिति या अनुभव उसकी कामना के अनुरूप हो, तो वह ‘मैं सुखी हूँ’ का दावा करता है। पर जब वही वस्तुएँ विपरीत हो जाती हैं, तब वह ‘मैं दुःखी हूँ’ का अनुभव करता है। यह अनुभव आत्मा का नहीं, बल्कि मन के साथ जुड़े हुए अहंकार का है। आत्मा तो साक्षी है, वह केवल देखती है, किन्तु कभी बदलती नहीं। जैसे आकाश में घटाएं आती हैं और चली जाती हैं, लेकिन आकाश पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता, वैसे ही सुख और दुःख की लहरियाँ अहंकार को प्रभावित करती हैं, आत्मा को नहीं।
यदि आत्मा सुख और दुःख का अनुभव करने वाली होती, तो वह नित्य आनन्दस्वरूप नहीं रह सकती। किन्तु शास्त्र बार-बार कहते हैं कि आत्मा सदा आनन्दमय है – "सच्चिदानन्द स्वरूपः"। इसका अर्थ है कि उसका अस्तित्व (सत्), उसकी चेतना (चित्) और उसका आनन्द (आनन्द) कभी नष्ट नहीं होते। दुःख और सुख का अनुभव तो केवल उपाधियों में होता है। जैसे सूर्य स्वयं कभी अंधकार से स्पर्श नहीं होता, किन्तु बादलों से ढका होने पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाश मंद पड़ गया है। उसी प्रकार आत्मा में कभी दुःख नहीं आता, किन्तु जब वह अहंकार और मन के साथ अध्यारोपित हो जाती है, तब सुख-दुःख का अनुभव होता है।
मनुष्य का पूरा जीवन इसी भ्रम में बीतता है कि आत्मा ही सुख-दुःख का भोक्ता है। इस कारण वह बार-बार प्रसन्न और उदास होता रहता है। परंतु विवेकपूर्वक देखने पर ज्ञात होता है कि ये अवस्थाएँ मन की हैं। जैसे स्वप्न में सुख और दुःख का अनुभव होता है, किन्तु जागने पर मनुष्य समझता है कि वे मिथ्या थे, वैसे ही जाग्रत अवस्था के सुख-दुःख भी आत्मा के लिए मिथ्या हैं। वे केवल अहंकार पर आरोपित हैं, आत्मा पर नहीं।
वेदांत का उद्देश्य ही यही है कि साधक यह स्पष्ट जान ले कि "मैं न तो सुखी हूँ, न दुःखी; मैं तो केवल साक्षी हूँ, सदा आनन्दस्वरूप हूँ।" यह ज्ञान होते ही मनुष्य का दृष्टिकोण बदल जाता है। वह विषयों की अनुकूलता या प्रतिकूलता से विचलित नहीं होता। संसार में परिस्थितियाँ बदलती रहेंगी, कभी अनुकूल तो कभी प्रतिकूल, परंतु साधक यह समझकर स्थित रहता है कि यह सब मन और अहंकार के धर्म हैं, आत्मा के नहीं।
इस प्रकार यह श्लोक साधक को आन्तरिक स्थिरता और शांति की ओर ले जाता है। जब यह अनुभव पक्का हो जाता है कि आत्मा सदा आनन्दस्वरूप है और बाहरी सुख-दुःख उससे सर्वथा असंग हैं, तब ही वास्तविक मुक्ति का द्वार खुलता है। यही अद्वैत वेदांत का सार है – आत्मा का नित्य आनन्द बाह्य विषयों से निर्भर नहीं है, वह स्वयं स्वाभाविक और अपरिवर्तनशील है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!