"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 75वां , 76 वां श्लोक"
"स्थूल शरीर का वर्णन"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
नभोनभस्वद्दहनाम्बुभूमयः सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि ॥ ७५ ॥
परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः ।
मात्रास्तदीया विषया भवन्ति शब्दादयः पञ्च सुखाय भोक्तुः ॥ ७६ ॥
अर्थ:-आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी- ये सूक्ष्म भूत हैं। इनके अंश परस्पर मिलने से स्थूल होकर स्थूल शरीर के हेतु होते हैं और इन्हीं की तन्मात्राएँ भोक्ता जीव के भोग रूप सुख के लिये शब्दादि पाँच विषय हो जाती हैं।
विवेकचूडामणि के श्लोक ७५ और ७६ में आदि शंकराचार्य जीव और शरीर की रचना को अत्यंत सूक्ष्म और दार्शनिक दृष्टिकोण से स्पष्ट करते हैं। यहाँ पर पंचमहाभूतों और उनकी तन्मात्राओं के माध्यम से स्थूल शरीर की उत्पत्ति की व्याख्या की गई है, जो वेदान्त दर्शन के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है।
श्लोक ७५ में कहा गया है कि आकाश (नभ), वायु (नभस्वत्), अग्नि (दहन), जल (अम्बु) और पृथ्वी (भूमि) — ये पाँच सूक्ष्म भूत होते हैं। 'सूक्ष्म' का अर्थ यहाँ यह है कि ये इन्द्रियगोचर नहीं होते, अर्थात् इन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से देख या छू नहीं सकते, परंतु इनसे उत्पन्न होने वाले प्रभावों को अनुभव किया जा सकता है। आकाश से शब्द, वायु से स्पर्श, अग्नि से रूप, जल से रस और पृथ्वी से गंध — ये पाँच विषय उत्पन्न होते हैं। ये पंचमहाभूत पहले सूक्ष्म रूप में रहते हैं और फिर इनकी रचनात्मक प्रक्रिया के द्वारा वे स्थूल रूप में परिवर्तित होते हैं। इनका यह सूक्ष्म स्वरूप समस्त भौतिक जगत की आधारशिला है।
फिर श्लोक ७६ में बताया गया है कि ये पंचमहाभूत परस्पर मिलकर, एक-दूसरे के अंशों से युक्त होकर स्थूल रूप ग्रहण करते हैं। इस प्रक्रिया को 'पंचीकरण' कहते हैं। पंचीकरण का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक स्थूल भूत में अन्य चार भूतों के अंश भी रहते हैं, जिससे यह भौतिक जगत की विविधता और स्थूलता उत्पन्न होती है। इन स्थूल पंचमहाभूतों के मेल से जो शरीर बनता है, वही स्थूल शरीर कहलाता है। यह स्थूल शरीर ही जीव के कर्मों का क्षेत्र बनता है, जहाँ वह भोग और अनुभव करता है। यही शरीर सुख-दुख, शीत-उष्ण, राग-द्वेष आदि का अनुभव करने का साधन बनता है।
आगे कहा गया है कि इन पंचमहाभूतों से उत्पन्न होने वाली तन्मात्राएँ — शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध — जीव के भोग के विषय बनती हैं। शब्द आकाश का गुण है, स्पर्श वायु का, रूप अग्नि का, रस जल का और गंध पृथ्वी का। ये विषय जब इन्द्रियों से संयोग करते हैं, तब जीव को सुख और दुःख का अनुभव होता है। जीव की चित्तवृत्तियाँ इन विषयों की ओर आकर्षित होती हैं, और यह आकर्षण ही बन्धन का कारण बनता है। सुख की कामना और दुःख से बचने की प्रवृत्ति ही संसार में जीव को बार-बार जन्म लेने को बाध्य करती है।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि शंकराचार्य इन श्लोकों के माध्यम से केवल स्थूल शरीर की भौतिक रचना का वर्णन नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे इसके पीछे छिपी हुई आत्मज्ञान की गूढ़ दृष्टि को भी सामने ला रहे हैं। वे यह दिखाना चाहते हैं कि यह स्थूल शरीर भी अंततः पंचमहाभूतों से बना है, जो स्वयं परिवर्तनशील और नश्वर हैं। जिस सुख के लिए जीव इन्द्रियों द्वारा विषयों में आसक्त होता है, वह भी पंचभौतिक तत्वों से उत्पन्न है और इसलिए क्षणिक और असत्य है। इस प्रकार, इस ज्ञान से साधक के भीतर वैराग्य उत्पन्न होता है और वह जानने लगता है कि सत्य स्वरूप आत्मा इन पंचभूतों से परे है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि स्थूल शरीर, विषय, इन्द्रियाँ, और उनका पारस्परिक संबंध सभी माया के अधीन हैं। माया पंचमहाभूतों की रचना करती है, और जीव को इस पंचभौतिक शरीर से तादात्म्य करके संसार में बाँध देती है। परन्तु जब जीव यह जान लेता है कि ये सब क्षणिक हैं और आत्मा इनसे भिन्न है, तब वह इस शरीर और विषयों को साधन रूप में देखता है, भोग के साधन के रूप में नहीं।
इस प्रकार इन श्लोकों का उद्देश्य साधक को यह बोध कराना है कि शरीर पंचमहाभूतों से बना हुआ है, और इसके विषय भी उन्हीं से उत्पन्न होते हैं। अतः न तो शरीर सत्य है और न ही इन्द्रियजन्य सुख। जो वस्तु नित्य नहीं है, वह आत्मा नहीं हो सकती। इस विवेक से ही आत्मज्ञान का आरम्भ होता है। यही विवेकचूडामणि का लक्ष्य है — जीव को आत्मा और अनात्मा के बीच भेद का स्पष्ट बोध कराना, ताकि वह आत्मा को जानकर मोक्ष प्राप्त कर सके।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!