"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 77वां श्लोक"
"स्थूल शरीर का वर्णन"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
य एषु मूढा विषयेषु बद्धा रागोरुपाशेन सुदुर्दमेन ।
आयान्ति निर्यान्त्यध ऊर्ध्वमुच्चैः स्वकर्मदूतेन जवेन नीताः ॥ ७७ ॥
अर्थ:-जो मूढ इन विषयों में रागरूपी सुदृढ़ एवं विस्तृत बन्धन से बँध जाते हैं, वे अपने कर्मरूपी दूत के द्वारा वेग से प्रेरित होकर अनेक उत्तमाधम योनियों में आते-जाते हैं।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का ७७वाँ श्लोक है, जिसमें श्री आदि शंकराचार्य ने संसार में रत, अविवेकी जीवों की दशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। इस श्लोक में कहा गया है कि जो मूढ़ – अर्थात अज्ञान के कारण विवेकहीन, भेद न कर सकने वाले व्यक्ति – इन्द्रिय विषयों में आसक्त हो जाते हैं, वे रागरूपी एक अत्यंत सुदृढ़ और कठिनता से छूटने वाले बन्धन में जकड़े हुए होते हैं। यह बन्धन इतना गहरा होता है कि मनुष्य स्वयं उसकी पकड़ से बाहर निकलने में असमर्थ होता है। ‘राग’ अर्थात विषयों के प्रति आसक्ति ही वह सूक्ष्म परंतु शक्तिशाली डोरी है, जो जीव को बार-बार जन्म और मरण के चक्र में घसीटती रहती है।
यहाँ 'सुदुर्दमेन रागेन' कहा गया है – अर्थात यह राग इतना दुर्दान्त है कि इसे जीतना सामान्य मनुष्य के लिए अत्यंत कठिन है। यह राग इन्द्रियों के द्वारा मन को विषयों की ओर खींचता है – रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द इन पांच विषयों में लिप्त होकर जीव स्वयं को उनसे एकीकृत कर लेता है। जैसे मकड़ी अपने ही जाले में उलझ जाती है, वैसे ही यह जीव भी अपनी राग-आसक्ति से निर्मित संसार-जाल में फँस जाता है।
शंकराचार्य कहते हैं कि ऐसे जीव अपने ही कर्मों के अनुसार – 'स्वकर्मदूतेन' – यानि कर्मरूपी दूत द्वारा – गति प्राप्त करते हैं। कर्म ही उन्हें ऊँची या नीची योनियों में ले जाता है। यह गति 'जवेन नीताः' – तीव्रता से होती है, जैसे कोई दूत बलपूर्वक किसी को पकड़कर कहीं ले जाए। यह दर्शाता है कि कर्म का फल टालने योग्य नहीं होता – जीव की गति उसी के अनुसार निर्धारित होती है।
‘आयान्ति निर्यान्ति’ – अर्थात वे बार-बार जन्म लेते हैं और मरते हैं। यह जन्म-मरण का चक्र अनादि है और जब तक राग रूपी बन्धन नहीं टूटता, तब तक यह क्रम चलता रहता है। 'अध ऊर्ध्वमुच्चैः' – इसका तात्पर्य है कि जीव कभी अधम योनियों में गिरता है, जैसे तामसिक प्रवृत्तियाँ युक्त जीवन, पशुयोनि, नरक आदि, और कभी ऊर्ध्व – अर्थात श्रेष्ठ योनियाँ, जैसे मनुष्य योनि या स्वर्गादि। लेकिन यह उन्नयन या पतन स्थायी नहीं होता, क्योंकि दोनों ही कर्माधीन हैं।
इस प्रकार यह श्लोक हमें यह बोध कराता है कि जब तक राग की शृंखला नहीं टूटती, तब तक आत्मा संसार के प्रवाह में बहती रहती है। केवल विवेक, वैराग्य और आत्मज्ञान ही इस राग को छिन्न कर सकता है। इसलिए उपदेश है कि विषयों में रत न होकर, अपने चित्त को आत्मदर्शन की ओर मोड़ो, अन्यथा कर्म के दास बनकर तुम्हारी गति कभी स्थिर नहीं होगी। यही शाश्वत सत्य है, और यही आत्मकल्याण का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!