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सोमवार, 4 अगस्त 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 78वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 78वां श्लोक"

"विषय निन्दा"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पंच पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः ।

कुरङ्गमातङ्गपतङ्गमीन-भृङ्गा नरः पञ्चभिरञ्चितः किम् ॥ ७८ ॥

अर्थ:-अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि पाँच विषयों में से केवल एक-एक से बँधे हुए हरिण, हाथी, पतंग, मछली और भौर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, फिर इन पाँचों से जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है?

शंकराचार्य कृत विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत प्रभावशाली और गहन उपदेश से युक्त है। इसमें पाँच इन्द्रियों के पाँच विषयों की आसक्ति द्वारा होने वाले पतन को अत्यंत सूक्ष्म और मार्मिक उदाहरणों के माध्यम से समझाया गया है। श्लोक में कहा गया है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध — ये पाँच विषय हैं, जो क्रमशः कान, त्वचा, आँख, जिह्वा और नाक की इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण किए जाते हैं। हर एक प्राणी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के कारण इनमें से किसी एक विषय की ओर इतना आकर्षित हो जाता है कि वह उसके कारण अपने जीवन का अंत कर बैठता है।

हरिण का उदाहरण लें। वह मधुर शब्द को सुनकर आकर्षित होता है, विशेषकर वीणा या मृदंग की ध्वनि उसे मोहित कर लेती है। शिकारी इसी प्रवृत्ति का लाभ उठाकर मधुर संगीत बजाते हैं, और हरिण उस ओर खिंचा चला आता है — परिणामतः उसकी मृत्यु होती है। इस प्रकार ‘शब्द’ विषय ने उसे बाँध दिया।

हाथी की प्रवृत्ति ‘स्पर्श’ में होती है। वह मादा हाथी के शरीर के स्पर्श को पाने की लालसा में जाल में फँस जाता है। इस प्रकार ‘स्पर्श’ ने उसे बाँध लिया और उसी की परिणति मृत्यु में हुई।

पतंगा दीपक की लौ के ‘रूप’ अर्थात् दृश्य सौंदर्य की ओर आकर्षित होकर उसमें समा जाता है और जलकर मर जाता है। केवल नेत्रों से देखे जाने वाले रूप के मोह में पड़कर वह अपने प्राण गंवा बैठता है।

मछली ‘रस’ अर्थात् स्वाद की लोभी होती है। काँटे में लगे चारे का स्वाद पाने की लालसा में वह उस चारे को निगल लेती है, और उसी के साथ जीवन भी समाप्त हो जाता है।

भौंरा ‘गंध’ के मोह में पड़ता है। वह फूल की सुगंध से मोहित होकर उसके अंदर समा जाता है, वहीं पर रात हो जाती है और फूल बंद हो जाता है, जिससे वह उसी में बंद होकर मर जाता है।

इन पाँचों उदाहरणों में देखा जाए तो प्रत्येक प्राणी केवल एक-एक विषय के मोह में पड़कर ही अपने जीवन का अंत कर बैठता है। शंकराचार्य यहाँ पर अत्यंत मार्मिक प्रश्न उठाते हैं — जब इन प्राणियों में से प्रत्येक एक ही विषय की आसक्ति से नष्ट हो जाता है, तो मनुष्य जो इन पाँचों विषयों से एक साथ आसक्त है, वह कैसे बच सकता है? मनुष्य के मन में सभी विषयों की अत्यंत गहरी आसक्ति होती है। वह मधुर संगीत, कोमल स्पर्श, सुंदर रूप, स्वादिष्ट भोजन और मनोहर गंध — इन सभी के प्रति आकर्षित होता है। उसकी इन्द्रियाँ इन विषयों की प्राप्ति के लिए निरंतर चेष्टा करती रहती हैं।

यह श्लोक हमें गहराई से यह सिखाता है कि यदि इन विषयों की ओर हम असावधानीपूर्वक आकर्षित होते हैं, तो हमारा अंत भी निश्चित है। अतः विवेकपूर्वक इन्द्रियों का संयम और विषयों के प्रति वैराग्य ही मुक्ति का मार्ग है। यही इस श्लोक का मर्म है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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