"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 79वां श्लोक"
"विषय निन्दा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
दोषेण तीव्रो विषयः कृष्णसर्पविषादपि।
विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम् ॥ ७९ ॥
अर्थ:-दोष में विषय काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र है, क्योंकि विष तो खाने वाले को ही मारता है, परन्तु विषय तो आँख से देखने वाले को भी नहीं छोड़ते।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत गहन और मार्मिक उपदेश देता है। इसमें विषयासक्ति की तुलना काले सर्प के विष से की गई है, और स्पष्ट रूप से यह दिखाया गया है कि विषयों की तृष्णा और उनमें रत रहने की प्रवृत्ति साधक के आत्मकल्याण के मार्ग में कितनी घातक हो सकती है। शंकराचार्य कहते हैं कि विषय अर्थात संसारिक भोगों की लालसा, काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र और विनाशकारी है। सामान्यतः हम यह समझते हैं कि सर्प का विष केवल उस व्यक्ति को मारता है जो उसके काटने का शिकार होता है, परन्तु विषयों का विष केवल उनका भोग करने वाले को ही नहीं, बल्कि मात्र देखने वाले को भी हानि पहुँचाता है।
यहाँ "दोषेण तीव्रो विषयः" वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है। इसका अभिप्राय है कि विषय inherently दोषयुक्त हैं — अर्थात् उनमें जन्मजात दोष है। वे नित्य नहीं हैं, क्षणभंगुर हैं, और उनमें आनंद का भ्रम मात्र है। फिर भी जीव उनके प्रति आसक्त रहता है, और इस आसक्ति से ही जन्म-जन्मांतर के बंधन उत्पन्न होते हैं। विषयों की तृष्णा शांत नहीं होती; जैसे अग्नि में घी डालने से वह और प्रज्वलित होती है, वैसे ही विषयों का सेवन मन को और अधिक व्याकुल करता है। यह एक ऐसा चक्र है जो अंतहीन दुःख का कारण बनता है।
"कृष्णसर्पविषादपि" — यहाँ काले सर्प का विष प्रतीक है अत्यंत घातकता का। यह दर्शाता है कि सांसारिक विषयों का प्रभाव कितना गहरा हो सकता है। परंतु यहाँ जो बात विशेष रूप से चौंकाने वाली है, वह यह कि विष तो केवल उस व्यक्ति को हानि पहुँचाता है जो उसे शरीर में ग्रहण करता है, परन्तु विषय तो इतने घातक हैं कि वे केवल देखने मात्र से भी चित्त को कलुषित कर देते हैं। "द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम्" — यह वाक्य बताता है कि विषयों की आक्रामकता इतनी अधिक है कि वे देखने वाले को भी भ्रमित कर देते हैं और साधना से विमुख कर देते हैं।
इस श्लोक का गूढ़ संकेत यही है कि साधक को विषयों के प्रति अत्यंत सतर्क रहना चाहिए। मात्र इंद्रिय संयम ही पर्याप्त नहीं है, अपितु मन का भी निग्रह आवश्यक है। यदि मन विषयों की ओर आकर्षित हुआ, तो भले ही इंद्रियाँ नियंत्रित हों, भीतर का वैराग्य खंडित हो जाता है। इसलिए साधना की प्रथम अवस्था में विषयों से दूर रहना और अंततः उनके प्रति उदासीनता उत्पन्न करना अत्यंत आवश्यक है। यह श्लोक न केवल विषयासक्ति की घातकता को उजागर करता है, बल्कि यह भी इंगित करता है कि आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर चलने वाला साधक यदि विषयों के जाल में फँस गया, तो उसका पतन निश्चित है। अतः विषयों से पूर्ण वैराग्य ही आत्मकल्याण की दिशा में प्रथम और अनिवार्य कदम है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!