"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 80वां श्लोक"
"विषय निन्दा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विषयाशामहापाशाद्यो विमुक्तः सुदुस्त्यजात् ।
स एव कल्पते मुक्त्यै नान्यः षट्शास्त्रवेद्यपि ॥ ८० ॥
अर्थ:-जो विषयों की आशा रूप कठिन बन्धन से छूटा हुआ है वही मोक्ष का भागी होता है और कोई नहीं; चाहे वह छहों दर्शनों का ज्ञाता क्यों न हो।
यह श्लोक अद्वैत वेदान्त ग्रंथ विवेकचूडामणि का 80वाँ श्लोक है, जिसमें विषयासक्ति के बंधन और मोक्ष की पात्रता के बारे में अत्यंत गम्भीर उपदेश दिया गया है। शंकराचार्य जी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि "विषयाशा महापाशात् यो विमुक्तः सुदुस्त्यजात्", अर्थात विषयों की आशा – जिसमें भोगों की कामना, इन्द्रिय-सुख की लालसा और संसार के प्रति राग सम्मिलित है – यह एक अत्यंत कठिन, दृढ़ और गहरे में पैठा हुआ बन्धन है। इसे 'महापाश' कहा गया है क्योंकि यह न केवल आत्मा को संसार में बाँधता है, बल्कि आत्मसाक्षात्कार की दिशा में चलने वाली साधना को भी बाधित करता है। 'सुदुस्त्यजा' शब्द यह दर्शाता है कि इस विषयासक्ति को त्यागना अत्यंत कठिन है, क्योंकि यह अनेक जन्मों की प्रवृत्तियों, संस्कारों और आदतों से गहन रूप से जुड़ी होती है।
परन्तु शंकराचार्य यह भी स्पष्ट करते हैं कि जो पुरुष इस विषयासक्ति से विमुक्त हो जाता है, वही मोक्ष के योग्य होता है। यहाँ केवल ज्ञान का होना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि श्लोक के दूसरे चरण में कहा गया है – "स एव कल्पते मुक्त्यै नान्यः षट्शास्त्रवेद्यपि", अर्थात यदि कोई व्यक्ति छः शास्त्रों (षड्दर्शन – सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त) का विद्वान भी क्यों न हो, यदि उसकी विषयों में आसक्ति बनी हुई है, तो वह मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता। यहाँ एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि शास्त्रज्ञान, तर्कशक्ति या वाद-विवाद की निपुणता किसी भी साधक को स्वतः मोक्ष की ओर नहीं ले जाती जब तक कि वह विषय-आसक्ति को नहीं त्यागता।
यहाँ 'विषय' शब्द का आशय केवल बाह्य वस्तुओं से सुख प्राप्त करने की इच्छा से नहीं है, बल्कि मानसिक राग-द्वेष, नाम-यश, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, शरीर के प्रति मोह, परिवार के प्रति अत्यधिक आसक्ति, और जीवन में स्थायित्व पाने की इच्छा सभी 'विषयाशा' में आते हैं। ये सभी इच्छाएँ व्यक्ति को आत्मस्वरूप के बोध से वंचित रखती हैं। जब तक चित्त में इन विषयों की कामना है, तब तक मन स्थिर नहीं होता और विवेक उत्पन्न नहीं होता। ऐसे चित्त में ब्रह्मज्ञान स्थायी रूप से नहीं टिक सकता।
शंकराचार्य जी यहाँ यह भी संकेत देते हैं कि मोक्ष केवल वैराग्य और विषयरहितता के बिना संभव नहीं है। ज्ञान की प्राप्ति केवल बुद्धि का काम नहीं है; वह एक सम्पूर्ण जीवन-परिवर्तन की माँग करता है – जहाँ मन, वाणी और शरीर तीनों विषयासक्ति से मुक्त होकर केवल आत्मा में स्थित हो जाते हैं। इसलिए केवल ग्रंथों का अध्ययन या पांडित्य नहीं, बल्कि विषयों के प्रति वास्तविक वैराग्य और अनासक्ति ही मोक्ष की पात्रता प्रदान करती है। यही कारण है कि वेदांत में बार-बार कहा गया है कि “वैराग्यं एव अभ्युदय निःश्रेयसहेतु:” – वैराग्य ही जीवन की उन्नति और मोक्ष दोनों का कारण है।
इस प्रकार, यह श्लोक साधक को गहराई से आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है – कि क्या उसके भीतर विषयों की गुप्त वासनाएँ अब भी विद्यमान हैं, या वह वास्तव में उस परम पथ का अधिकारी बनने के लिए शुद्ध हो चुका है। शंकराचार्य जी की यह उद्घोषणा साधना के मार्ग को स्पष्ट और कठोर बनाती है: विषय की आशा जब तक है, तब तक आत्मा स्वतंत्र नहीं हो सकती।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!