"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 81वां श्लोक"
"विषय निन्दा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आपातवैराग्यवतो भवाब्धिपारं मुमुक्षून् प्रतियातुमुद्यतान् ।
आशाग्रहो मज्जयतेऽन्तराले विगृह्य कण्ठे विनिवर्त्य वेगात् ॥ ८१ ॥
अर्थ:-संसार-सागर को पार करने के लिये उद्यत हुए क्षणिक वैराग्य वाले मुमुक्षुओं को आशारूपी ग्राह अति वेग से बीच ही में रोक कर गला पकड़ कर डुबो देता है।
यह श्लोक अद्वैत वेदान्त के महान ग्रंथ विवेकचूडामणि का 81वां श्लोक है, जिसमें शंकराचार्यजी ने वैराग्य के क्षणिक रूप और आशा की अत्यंत प्रबल भूमिका को अत्यंत मार्मिक प्रतीक के माध्यम से समझाया है। यह श्लोक उस जिज्ञासु साधक के लिए एक चेतावनी है, जो संसार-सागर को पार करना चाहता है, परंतु जिसका वैराग्य स्थायी नहीं है, और जिसकी भीतर की आशाएं अभी भी जीवित हैं।
श्लोक में "आपातवैराग्यवतः" शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है – ऐसा व्यक्ति जिसमें वैराग्य तो उत्पन्न हुआ है, परंतु वह स्थायी नहीं है, केवल किसी विशेष परिस्थिति या दुख के कारण उत्पन्न हुआ है। यह वैराग्य आत्मिक समझ और गहन विवेक से नहीं उपजा, बल्कि किसी दुःखद घटना, हानि, या अस्थायी मनोभावना का परिणाम है। ऐसे मुमुक्षु जब संसार-सागर को पार करने का यत्न करते हैं, तो बीच में ही "आशा" रूपी ग्राह (घड़ियाल) अत्यंत बलपूर्वक उन्हें पकड़ कर डुबो देता है।
यहाँ "आशा" का अर्थ केवल साधारण इच्छाओं से नहीं है, बल्कि उस गहरे, सूक्ष्म, और दृढ़ संसार की आसक्ति से है, जो मन के गहरे तल में छिपी होती है। यह आशा कभी-कभी स्वयं को धर्म, भक्ति, योग, सेवा आदि के रूप में भी छिपा लेती है, परंतु उसका अंतिम लक्ष्य भोग, प्रशंसा, नाम, प्रतिष्ठा, सुख आदि ही होता है। जब साधक में वैराग्य स्थायी नहीं होता, तो यह आशा पुनः सिर उठाती है और उसे मार्ग से भटका देती है।
शंकराचार्यजी ने "आशाग्रहो मज्जयतेऽन्तराले" कहा है – यह आशा रूपी ग्राह (घड़ियाल) साधक को बीच रास्ते में पकड़ता है, जब वह मोक्ष की ओर बढ़ रहा होता है। यही सबसे खतरनाक स्थिति है। प्रारंभ में तो साधक सावधान रहता है, पर जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता है, भीतर की छुपी हुई वासनाएं पुनः जागृत होने लगती हैं। यह ग्राह गला पकड़कर डुबो देता है, अर्थात आत्मसाधना को ही नष्ट कर देता है। यह क्रिया इतनी तीव्र होती है ("वेगात्") कि साधक को संभलने का अवसर तक नहीं मिलता।
यह श्लोक हमें चेताता है कि वैराग्य केवल क्षणिक भावना नहीं होनी चाहिए, बल्कि वह दृढ़, विवेकपूर्ण, और निरंतर साधना से पुष्ट होनी चाहिए। केवल संसार के दुखों से ऊबकर वैराग्य उत्पन्न करना स्थायी नहीं होता। जब तक आशाओं की जड़ें पूरी तरह नहीं उखाड़ी जातीं, तब तक साधना में सफलता संभव नहीं। आशाएं तब तक जीवित रहती हैं, जब तक 'मैं' और 'मेरा' का अभिमान बना रहता है। जब यह अहं भाव समाप्त होता है, तभी वास्तविक वैराग्य प्रकट होता है।
इसलिए इस श्लोक में शंकराचार्यजी ने यह स्पष्ट कर दिया कि मोक्ष की यात्रा में सबसे बड़ा शत्रु वह सूक्ष्म आशा है, जो भीतर कहीं छिपी रहती है और सही समय पर साधक को डुबा देती है। यह शिक्षाप्रद और मार्गदर्शक श्लोक साधक को आंतरिक निगरानी, विवेक, और सतत वैराग्य की अनिवार्यता की ओर इंगित करता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!