"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 82वां श्लोक"
"विषय निन्दा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विषयाख्यग्रहो येन सुविरक्त्यसिना हतः ।
स गच्छति भवाम्भोधेः पारं प्रत्यूहवर्जितः ॥ ८२॥
अर्थ:- जिसने वैराग्य रूपी खड्ग से विषयैषणा रूपी ग्राह को मार दिया है, वही निर्विघ्न संसार-समुद्र के उस पार जा सकता है।
यह श्लोक विवेकचूडामणि के उन अत्यंत महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है, जो साधक को आत्मसाधना की गहराइयों की ओर इंगित करता है। इसमें विषयों के प्रति आसक्ति को ‘ग्राह’ — अर्थात् मगरमच्छ — के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो साधक को मोक्ष की ओर जाने से रोकता है। यह ग्राह (मगर) एक अत्यंत शक्तिशाली प्रतीक है, जो दर्शाता है कि विषय-वासनाएँ मात्र इच्छाएँ नहीं हैं, बल्कि वे साधना मार्ग में घातक रुकावट हैं, जो साधक को भीतर ही भीतर निगल जाती हैं। इस श्लोक में कहा गया है कि जिसने इस ग्राह को ‘वैराग्य’ रूपी खड्ग (तलवार) से मार डाला है, वही साधक संसार-सागर के पार, अर्थात् मोक्ष को, निर्विघ्न रूप से प्राप्त कर सकता है।
‘विषयाख्यग्रहो’ — यहाँ विषयों के प्रति जो गहन आकर्षण है, वह ग्राह की तरह खतरनाक है। यह ग्राह व्यक्ति को देखता भी नहीं है, धीरे-धीरे पकड़ता है और पूरी तरह निगल लेता है। विषय चाहे दृष्टि के हों, श्रवण के हों, गंध, स्वाद या स्पर्श के — इनसे उत्पन्न आकर्षण ही मनुष्य को बार-बार जन्म-मरण के चक्र में बाँधता है। जब तक यह ग्राह जीवित है, साधक चाहे कितनी भी साधना कर ले, उसे पार नहीं पा सकता। इसलिए इस ग्राह का वध आवश्यक है। यह वध किसी बाह्य शस्त्र से नहीं, बल्कि वैराग्य के शस्त्र से ही संभव है।
‘सुविरक्त्यसिना हतः’ — यह स्पष्ट करता है कि वैराग्य साधारण नहीं होना चाहिए, बल्कि सुविरक्त होना चाहिए — दृढ़, गहन और यथार्थ वैराग्य। यह वैराग्य क्षणिक या आवेशमूलक नहीं होना चाहिए, वरन् यह पूर्ण विवेक पर आधारित होना चाहिए — जहाँ साधक यह भलीभाँति जान चुका हो कि सभी विषय अनित्य, दुःखरूप और आत्म-विस्मृति के कारण हैं। जब यह गहरा वैराग्य उत्पन्न होता है, तभी वह विषयों की आसक्ति को जड़ से काट सकता है। यह वैराग्य ही उस शस्त्र के समान है, जो साधक को ग्राह रूपी विघ्न से मुक्त कर देता है।
‘स गच्छति भवाम्भोधेः पारं प्रत्यूहवर्जितः’ — अब यह कहा गया है कि ऐसा साधक, जिसने वैराग्य के माध्यम से विषयों की आसक्ति को नष्ट कर दिया है, वह संसार-समुद्र के पार जा सकता है — बिना किसी विघ्न के। ‘प्रत्यूहवर्जितः’ यह दर्शाता है कि अन्य कोई रुकावट अब शेष नहीं रहती, क्योंकि मुख्य विघ्न — विषयासक्ति — नष्ट हो चुका है। संसार-सागर का पार जाना ही मोक्ष है — जहाँ न जन्म है, न मरण, न दुःख, न वासनाएँ। यह शांति और पूर्णता की अवस्था है — आत्मस्वरूप की सिद्धि।
इस श्लोक में हमें अद्वैत वेदान्त की साधना-पद्धति का एक अत्यंत व्यावहारिक संकेत मिलता है — कि ज्ञान प्राप्ति से पूर्व, विषयों से वैराग्य अत्यंत आवश्यक है। ज्ञान और वैराग्य, दोनों साथ-साथ चलते हैं। बिना वैराग्य के ज्ञान फलित नहीं होता। वैराग्य के बिना शास्त्र भी केवल शब्द बनकर रह जाते हैं। इसलिए साधक का पहला कर्तव्य यही है कि वह गहन वैराग्य उत्पन्न करे और विषय रूपी ग्राह का अंत कर दे। तभी वह निर्विघ्न मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!