"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 83वां श्लोक"
"विषय निन्दा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विषमविषयमार्गेर्गच्छतो ऽनच्छबुद्धेः प्रतिपदमभियातो मृत्युरप्येष विद्धि ।
हितसुजनगुरूक्त्या गच्छतः स्वस्य युक्त्या प्रभवति फलसिद्धिः सत्यमित्येव विद्धि ॥ ८३ ॥
अर्थ:-विषय रूपी विषम मार्ग में चलने वाले मलिनबुद्धि को पद-पद पर मृत्यु आती है-ऐसा जानो। और यह भी बिलकुल ठीक समझो कि हितैषी, सज्जन अथवा गुरु के कथनानुसार अपनी युक्ति से चलने वाले को फल-सिद्धि हो ही जाती है।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत ग्रंथ विवेकचूडामणि का 83वां श्लोक है, जिसमें शंकराचार्य जी ने सांसारिक विषयों की ओर प्रवृत्त होने की दुर्बुद्धि और गुरु-निर्देशित पथ पर चलने की महत्ता को अत्यंत गम्भीरता से प्रस्तुत किया है। इसमें दो प्रकार के साधकों की तुलना की गई है—एक वह जो विषयासक्ति में लिप्त होकर अपनी ही इच्छा और मलिन बुद्धि के अधीन चलता है; और दूसरा वह जो सज्जनों, गुरुजनों और हितैषियों की बातों को मानकर युक्तिपूर्वक साधन करता है।
श्लोक का प्रथम भाग बताता है कि जो व्यक्ति अपनी अशुद्ध बुद्धि के कारण विषम अर्थात् कठिन और भयंकर विषय मार्ग पर चलता है, वह जीवन के प्रत्येक चरण पर मृत्यु के समान संकटों का सामना करता है। "विषमविषयमार्गेर्गच्छतोऽनच्छबुद्धेः" — विषयों का मार्ग सरल प्रतीत हो सकता है, पर वास्तव में वह विष से भी अधिक भयानक है, जैसे पहले के श्लोकों में बताया गया कि विषय काले सर्प के विष से भी तीव्र होता है। यहां 'मृत्यु' का अर्थ केवल शारीरिक मृत्यु नहीं, बल्कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप से गिरावट, विवेक का लोप, चित्त की अशुद्धि, और अंत में मोक्ष से वंचित रह जाना है। विषयों में आसक्त बुद्धि वाला व्यक्ति बार-बार संसार के जन्म-मरण चक्र में फँसता है, उसके जीवन में न तो शांति होती है, न स्थायित्व।
दूसरी ओर, श्लोक के उत्तरार्ध में शंकराचार्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने जीवन में गुरु, सज्जन और हितैषी लोगों की वाणी का अनुसरण करता है और उसे अपनी बुद्धि द्वारा युक्तियुक्त समझ कर आचरण करता है, उसे फल की सिद्धि निश्चित रूप से प्राप्त होती है। यहाँ 'हितसुजनगुरूक्त्या गच्छतः' का तात्पर्य है कि जब कोई साधक अहंकार त्यागकर गुरु की शरण में जाता है, और उसके उपदेशों को शास्त्र-सम्मत और यथार्थ मानकर चलता है, तो उसके भीतर आत्मशुद्धि होती है। ‘स्वस्य युक्त्या’ का अर्थ है केवल अंधश्रद्धा नहीं, अपितु गुरु-वचन को समझकर, विचार कर, उसको अपने जीवन में यथासम्भव लागू करना। यह संयोजन ही साधक को स्थिर, गंभीर और दृढ़ बनाता है, जिससे साधना में सफलता अवश्य मिलती है।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें स्पष्ट रूप से यह सिखाता है कि आत्मा की उन्नति के लिए विषयों से दूर रहकर, गुरु की आज्ञा में चलना आवश्यक है। अपनी युक्ति का प्रयोग यदि सज्जनों के उपदेशों के आधार पर किया जाए, तो वह कल्याणकारी होता है; अन्यथा स्वतंत्र इच्छा से विषयों में प्रवृत्त होना आत्म-विनाश की ओर ले जाता है। यही सत्य है — “सत्यमित्येव विद्धि।” यह श्लोक आत्म-संयम, गुरु-श्रद्धा और विवेकयुक्त साधना का महत्त्व अत्यंत सटीक रूप से प्रकट करता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!