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रविवार, 10 अगस्त 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 84वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 84वां श्लोक"

"विषय निन्दा"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

मोक्षस्य काङ्क्षा यदि वै तवास्ति त्यजातिदूराद्विषयान् विषं यथा।

पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव-प्रशान्तिदान्तीर्भज नित्यमादरात् ॥ ८४ ॥

अर्थ:-यदि तुझे मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विषके समान दूर ही से त्याग दे। और सन्तोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम का अमृत के समान नित्य आदरपूर्वक सेवन कर।

विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आद्य शंकराचार्य मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा रखने वाले साधक को स्पष्ट और गहन मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। वे कहते हैं कि यदि वास्तव में तुम्हारे भीतर मोक्ष की तीव्र इच्छा है — वह परम सत्य की प्राप्ति, संसार बन्धन से पूर्ण मुक्ति की आकांक्षा है — तो सबसे पहले तुम्हें विषयों का, इन्द्रिय-सुखों का त्याग करना होगा। विषय, यहाँ केवल भोग-विलास की वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि वे समस्त आकर्षण हैं जो आत्मा को शरीर और जगत से बाँधते हैं। इन विषयों की तुलना शंकराचार्य ‘विष’ से करते हैं — जैसे विष शरीर का नाश करता है, वैसे ही विषय चित्त की शुद्धता का नाश कर आत्मज्ञान से दूर कर देते हैं। इसलिए, विषयों का दूर से ही परित्याग करना आवश्यक है; उन्हें निकट लाना भी साधक के लिए घातक हो सकता है।

विषयों का त्याग ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि त्याग के साथ-साथ जीवन में अमृत-स्वरूप सद्गुणों का समावेश भी आवश्यक है। शंकराचार्य छः ऐसे गुणों का उल्लेख करते हैं जो आत्मज्ञान की ओर ले जाने वाले हैं — संतोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम। ये गुण साधक की आन्तरिक भूमि को पवित्र और उर्वर बनाते हैं, जिस पर आत्मज्ञान का बीज सहज रूप से पनपता है। संतोष वह गुण है जो बाह्य वस्तुओं की इच्छा को क्षीण करता है और अन्तःशांति प्रदान करता है। दया से हृदय में करुणा का संचार होता है, जो द्वैत की दीवारों को गिराता है। क्षमा मन में रहने वाले वैर, रोष और प्रतिशोध की वृत्तियों को समाप्त करती है और अहंकार को पिघलाती है।

सरलता या आर्जव वह गुण है जो जीवन को निष्कपट और सच्चा बनाता है। यह मन, वाणी और कर्म में एकरूपता लाता है। शम अर्थात् चित्त की स्थिरता — मन को विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करना। दम अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह — इन्द्रियों को विषयों की ओर भागने से रोकना और आत्मविवेक की दिशा में लगाना। ये गुण साधक के लिए केवल सैद्धान्तिक अवधारणाएँ नहीं हैं, बल्कि उन्हें प्रतिदिन के जीवन में आदरपूर्वक अपनाना होता है। जैसे कोई अमृत को नित्य पीता है, वैसे ही इन गुणों का नित्य सेवन करना आवश्यक है, क्योंकि ये ही मुक्ति के द्वार तक पहुँचने के साधन हैं।

शंकराचार्य का यह उपदेश केवल वैराग्य की ओर नहीं ले जाता, बल्कि सकारात्मक आध्यात्मिक जीवन की रचना करता है। यह हमें बताता है कि मोक्ष केवल संन्यास या त्याग से प्राप्त नहीं होता, बल्कि एक विशुद्ध और सद्गुणों से युक्त जीवन जीने से प्राप्त होता है। जब विषयों का त्याग और सद्गुणों का अंगीकरण एक साथ होता है, तब ही चित्त निर्मल होता है और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने लगती है। अतः इस श्लोक में मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो निर्देश दिए गए हैं, वे न केवल व्यवहारिक हैं, बल्कि साधना के प्रत्येक चरण में हमारे लिए आवश्यक भी हैं।


!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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