"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 85वां श्लोक"
"देहासक्तिकी निन्दा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अनुक्षणं यत्परिहृत्य कृत्य-
मनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षणम् ।
देहःपरार्थोऽयममुष्य पोषणे
यः सज्जते स स्वमनेन हन्ति ॥ ८५ ॥
अर्थ:-जो अनादि अविद्याकृत बन्धन को छुड़ाना रूप अपना कर्तव्य त्याग कर प्रतिक्षण इस परार्थ (अन्यके भोग्यरूप) देह के पोषण में ही लगा रहता है, वह [अपनी इस प्रवृत्ति से] स्वयं अपना घात करता है।
शंकराचार्यजी के विवेकचूडामणि के इस ८५वें श्लोक में साधक को उसके जीवन का मूल उद्देश्य स्मरण कराया गया है। यहाँ अत्यंत गूढ़ लेकिन सीधी चेतावनी दी गई है कि मनुष्य का यह जीवन केवल भौतिक शरीर के पोषण और सुख-सुविधा के लिए नहीं है, बल्कि इसका परम लक्ष्य अनादि काल से चली आ रही अविद्या-जनित बन्धनों से मुक्ति प्राप्त करना है। “अनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षणम्” का अर्थ है – वह बन्धन जो जन्म-जन्मांतर से अज्ञान के कारण आत्मा पर आरोपित हुआ है, उससे छुटकारा पाना। यह बन्धन न वास्तविक है, न शाश्वत, परंतु अज्ञान के कारण यह सत्य प्रतीत होता है और जीव को संसार के चक्र में बाँधे रखता है।
श्लोक में कहा गया है कि जो साधक “अनुक्षणं” अर्थात् हर क्षण, इस बन्धन-मोचन के अपने कर्तव्य को त्यागकर केवल “देहः परार्थः” – इस देह को दूसरों के भोग के योग्य बनाने, उसका पालन-पोषण करने और उसकी शोभा बढ़ाने में ही लिप्त रहता है, वह वस्तुतः अपने ही आत्मकल्याण का हनन कर रहा है। यहाँ “परार्थ” शब्द गहन है – देह अपने आप में आत्मा नहीं है, यह केवल एक उपकरण है जो संसार के विषयों के अनुभव के लिए उपयोग होता है। इसीलिए जब हम देह को सर्वोपरि मानकर उसके सुख-साधन में जीवन का अधिकांश समय लगा देते हैं, तो हम अपने वास्तविक स्वरूप की खोज से दूर हो जाते हैं।
यहाँ शंकराचार्यजी साधक को यह समझाना चाहते हैं कि देह का संरक्षण और आवश्यक देखभाल तो ठीक है, क्योंकि यह साधना का साधन है, परंतु जब साधक इस साधन को ही लक्ष्य मान लेता है, तो वह मूल पथ से भटक जाता है। देह नश्वर है, क्षणभंगुर है, यह पंचभूतों से बना है और अंततः पंचतत्व में विलीन हो जाएगा। यदि मनुष्य अपना कीमती समय केवल इसे सजाने-संवारने, खिलाने-पिलाने और सुख पहुँचाने में ही व्यतीत कर दे, तो वह अपनी आध्यात्मिक यात्रा को बीच में ही रोक देता है।
इस श्लोक का एक और संकेत है – जो व्यक्ति आत्मज्ञान की साधना छोड़कर केवल सांसारिक सुख-सुविधाओं में, या दूसरों की स्वीकृति पाने हेतु शरीर और बाहरी व्यक्तित्व के सुधार में ही लगा रहता है, वह आत्महत्या के समान कार्य कर रहा है। यहाँ आत्महत्या का अर्थ शरीर का विनाश नहीं, बल्कि आत्मा के कल्याण की संभावना का विनाश है। यह मृत्यु उससे भी अधिक दुखद है, क्योंकि यह हमें पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँसा देती है।
इस दृष्टिकोण से, यह श्लोक साधक को अनुशासित और जागरूक रहने का आह्वान करता है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि हर क्षण बहुमूल्य है और इसे केवल भोग, संग्रह या दिखावे में नष्ट करना स्वयं अपने हाथों से मोक्ष-द्वार बंद करना है। साधना में निरंतरता, आत्मचिंतन, और विवेक-प्रेरित कर्म ही हमें अविद्या के बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं। देह का यथोचित ध्यान रखना आवश्यक है, परंतु उसका उद्देश्य केवल आत्मसाधना की सेवा होना चाहिए, न कि भोग और विलास।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें जीवन की प्राथमिकता तय करने की शिक्षा देता है – देह को साधन मानकर, आत्म-मुक्ति को ही सर्वोच्च लक्ष्य बनाना। जो इस सत्य को समझकर कार्य करता है, वही अपने जीवन का सही उपयोग करता है; जो नहीं करता, वह अपने ही हाथों अपने आध्यात्मिक भविष्य को नष्ट करता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!