"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 86वां श्लोक"
"देहासक्तिकी निन्दा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति ।
ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तुं स इच्छति ॥ ८६ ॥
अर्थ:- जो शरीर पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्व को देखना चाहता है, वह मानो काष्ठ-बुद्धि से ग्राह को पकड़ कर नदी पार करना चाहता है।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्यजी ने साधना मार्ग में एक अत्यंत सूक्ष्म और गंभीर बाधा की ओर संकेत किया है। यहाँ कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने जीवन का अधिकांश समय और ऊर्जा केवल शरीर के पोषण, उसकी सुविधा और सुख-साधनों की व्यवस्था में लगाता है, और साथ ही यह भी चाहता है कि उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो, तो उसकी स्थिति अत्यंत विरोधाभासी है। आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि साधक अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से तय करे—शरीर का पोषण और देखभाल तो आवश्यक है, परंतु उसका अति-आसक्त होकर पीछा करना आत्मज्ञान के मार्ग में बड़ी रुकावट बन जाता है।
आदि शंकराचार्यजी ने इसे एक अद्भुत और प्रभावशाली उपमा से स्पष्ट किया है—ऐसा व्यक्ति मानो किसी नदी को पार करना चाहता है, लेकिन नदी पार करने के लिए नाव या तैरने का सहारा लेने के बजाय, वह ग्राह (मगरमच्छ) को पकड़कर तैरने की कोशिश करता है। यह बुद्धिहीनता का चरम है, क्योंकि मगरमच्छ नदी पार कराने के बजाय उसे पकड़कर डुबा देगा। इसी प्रकार, शरीर-आसक्ति और इन्द्रिय-सुखों में लिप्त रहकर आत्मज्ञान की आकांक्षा करना भी अंततः साधक को संसार रूपी बंधन में और गहरा डुबो देता है।
यहाँ "दारुधिया" का अर्थ है लकड़ी के टुकड़े की तरह बुद्धि, अर्थात् जड़ और विवेक-शून्य सोच। जैसे कोई मूर्ख यह न समझ पाए कि मगरमच्छ उसके जीवन के लिए खतरा है और उसे पकड़कर पार करना तो असंभव ही है, वैसे ही जो साधक यह नहीं समझ पाता कि शरीर-आसक्ति और आत्मसाक्षात्कार एक-दूसरे के विपरीत दिशा में ले जाते हैं, वह अपने ही प्रयासों से विनाश की ओर बढ़ रहा है। शरीर साधन है, साध्य नहीं; परंतु अधिकांश लोग साधन को ही साध्य मान बैठते हैं।
आत्मज्ञान का मार्ग त्याग, वैराग्य और मन-इन्द्रियों की निग्रह-साधना पर आधारित है। यदि मन निरंतर शरीर की आवश्यकताओं और सुख-सुविधाओं की ओर खिंचता रहेगा, तो वह आत्म-विचार की गहराई में नहीं जा पाएगा। शंकराचार्यजी यहाँ यह नहीं कह रहे कि शरीर की उपेक्षा करनी चाहिए, बल्कि यह सिखा रहे हैं कि शरीर की देखभाल न्यूनतम आवश्यक स्तर तक हो, जिससे साधना बाधित न हो। परंतु यदि शरीर-सेवा ही जीवन का मुख्य लक्ष्य बन जाए, तो आत्मज्ञान का मार्ग लगभग बंद हो जाता है।
इस उपमा का मर्म यह है कि संसार और शरीर की मोह-माया को साधना का साधन समझना सबसे बड़ी भूल है। जैसे मगरमच्छ अपनी प्रकृति के अनुसार मार ही डालेगा, वैसे ही शरीर-आसक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार मन को विषय-भोग की ओर ही खींचेगी। आत्मज्ञान की चाह रखने वाले के लिए यह अनिवार्य है कि वह शरीर को मात्र एक उपकरण माने, जो आत्मसाधना के लिए उपयोगी है, परंतु उसका उद्देश्य केवल उसकी सेवा करना न बन जाए।
अतः यह श्लोक साधक को चेतावनी देता है कि आत्मज्ञान के मार्ग में विवेक आवश्यक है। विवेक के बिना शरीर-आसक्ति साधक को उसी तरह डुबा देती है जैसे ग्राह नदी में पकड़ने वाले को। यदि आत्मदर्शन का लक्ष्य रखना है तो शरीर को आवश्यक सीमा तक साधन की तरह उपयोग करें, उससे मोह न रखें, और पूरी लगन से अपने चित्त को आत्मविचार और ब्रह्मज्ञान की ओर मोड़ें। यही सच्ची साधना है और यही नदी पार करने का सही मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!