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बुधवार, 13 अगस्त 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 87वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 87वां श्लोक"

"देहासक्तिकी निन्दा"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु ।
मोहो विनिर्जितो येन स मुक्तिपदमर्हति ॥ ८७ ॥

अर्थ:-शरीरादि में मोह रखना ही मुमुक्षु की बड़ी भारी मौत है; जिसने मोह को जीता है वही मुक्तिपद का अधिकारी है।

इस श्लोक में आदि शंकराचार्य जी ने मुमुक्षु अर्थात जो मोक्ष की तीव्र इच्छा रखता है, उसके लिए एक अत्यंत गंभीर चेतावनी दी है। वे कहते हैं कि शरीर और उससे जुड़े हुए घटक – जैसे इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, और बाहरी संपत्ति, संबंध आदि – में मोह रखना ही उसके लिए “महामृत्यु” है। सामान्य मृत्यु तो केवल इस स्थूल शरीर का अंत करती है, लेकिन मोह रूपी यह महामृत्यु साधक के आत्मज्ञान की यात्रा को ही समाप्त कर देती है। मोह का अर्थ है किसी वस्तु को अपनी मानकर उससे आसक्ति रखना, उस पर अधिकार और निर्भरता का भाव बनाना। जब यह मोह शरीर, सौंदर्य, स्वास्थ्य, शक्ति, या उसके साथ जुड़े भौतिक साधनों के प्रति होता है, तब यह मुमुक्षु को आत्मपथ से विचलित कर देता है।

मुमुक्षु का लक्ष्य शरीर नहीं, बल्कि आत्मा है। शरीर एक साधन मात्र है, जो साधना के लिए मिला है; यह स्वभावतः नश्वर, जड़ और परिवर्तनशील है। परंतु जब साधक इसमें ही सुख, सुरक्षा और पहचान खोजने लगता है, तब उसकी दृष्टि बाहर की ओर बंध जाती है और भीतर की यात्रा रुक जाती है। यही कारण है कि शंकराचार्य जी ने शरीरादि में मोह को “महामृत्यु” कहा – क्योंकि यह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने का मार्ग ही काट देता है। जिस प्रकार जहाज समुद्र पार कराने के लिए होता है, लेकिन उसी जहाज के सजावट और बाहरी रख-रखाव में फंसकर यात्री यात्रा ही भूल जाए, तो वह किनारे नहीं पहुंच सकता; उसी प्रकार मुमुक्षु यदि शरीर और उसकी भोग-सुविधाओं में उलझ गया, तो आत्म-साक्षात्कार का पारलौकिक किनारा उसके लिए दुर्लभ हो जाएगा।

यहां एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि मोह केवल स्थूल शरीर तक सीमित नहीं है। यह सूक्ष्म रूप में “अहंकार” के रूप में भी प्रकट होता है – जैसे ‘मैं विद्वान हूं’, ‘मैं साधक हूं’, ‘मैं ज्ञानी हूं’। यह भी शरीर और मन की ही पहचान है, जो आत्मा से भिन्न है। जब तक यह मोह बना रहेगा, तब तक आत्मा की शुद्ध, अखंड, नित्य सत्ता का अनुभव संभव नहीं है। इसलिए मुमुक्षु के लिए मोह-विजय अनिवार्य है। मोह को जीतने का अर्थ यह नहीं कि शरीर की उपेक्षा की जाए या उसे कष्ट दिया जाए, बल्कि उसका यथार्थ ज्ञान हो – कि यह केवल एक साधन है, न कि हमारा वास्तविक स्वरूप।

जिसने मोह को जीत लिया है, वह मुक्तिपद का अधिकारी बन जाता है। इसका कारण यह है कि मोह ही अविद्या की जड़ है, और अविद्या ही संसार-बंधन का कारण है। जब मोह का नाश होता है, तब मन शांत, बुद्धि निर्मल और चित्त एकाग्र हो जाता है। ऐसे निर्मल चित्त में ही ब्रह्म का साक्षात्कार संभव है। मोह से मुक्त व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में स्थिर रहता है – न सुख में उछलता है, न दुख में टूटता है; न लाभ से मोहित होता है, न हानि से विचलित। उसका हृदय केवल सत्य, ज्ञान और आनंद की ओर आकर्षित रहता है। यही अवस्था उसे आत्मज्ञान की अंतिम मंजिल – मोक्ष – की ओर ले जाती है।

इस प्रकार, शंकराचार्य जी का यह संदेश साधक के लिए एक कठोर लेकिन करुणापूर्ण चेतावनी है – यदि तुम वास्तव में मुक्ति चाहते हो, तो शरीरादि में मोह का जरा भी स्थान मत रहने दो। मोह ही तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु और आध्यात्मिक मृत्यु है; और उसका नाश ही तुम्हारी सच्ची जीवन-प्राप्ति और अमृतत्व का द्वार है।


!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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