"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 88वां श्लोक"
"देहासक्तिकी निन्दा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मोहं जहि महामृत्युं देहदारसुतादिषु ।
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ८८ ॥
अर्थ:-देह, स्त्री और पुत्रादि में मोह रूप महामृत्यु को छोड़; जिसको जीत कर मुनिजन भगवान् के उस परम पद को प्राप्त होते हैं।
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक साधक को अत्यंत गहन उपदेश देता है। इसमें वे स्पष्ट करते हैं कि शरीर, स्त्री, पुत्र और अन्य सांसारिक संबंधों के प्रति जो आसक्ति या मोह है, वही वास्तव में "महामृत्यु" है। यहाँ "महामृत्यु" का अर्थ केवल शारीरिक मृत्यु नहीं, बल्कि जन्म-मरण के अंतहीन चक्र, संसार-बंधन और आत्मा के अज्ञान की वह अवस्था है जिसमें जीव फंसा रहता है। जब तक यह मोह बना रहता है, तब तक आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप—शुद्ध, मुक्त, नित्य ब्रह्म—का अनुभव नहीं कर पाती। इसीलिए शंकराचार्य कहते हैं, "मोहं जहि"—इस मोह को त्याग दो।
देह के प्रति मोह का अर्थ है इसे "मैं" मानना और इसे स्थायी समझना। परंतु यह शरीर नश्वर है, पंचमहाभूतों से बना है और समय के साथ क्षीण होकर नष्ट हो जाता है। यदि साधक इसे आत्मा का स्वरूप मान लेता है, तो वह अविद्या में डूबा रहता है। इसी प्रकार "दार" यानी जीवनसाथी और "सुत" यानी संतान के प्रति मोह का भी यही स्वरूप है। यहाँ शंकराचार्य का भाव यह नहीं है कि संबंध रखना या प्रेम करना त्याज्य है, बल्कि यह कि इन संबंधों में आसक्ति, स्वामित्व-बोध और "इनके बिना मैं अधूरा हूँ" की भावना छोड़नी चाहिए। जब प्रेम आसक्ति में बदल जाता है, तो वह बंधन का कारण बनता है।
मोह त्यागने का अर्थ यह नहीं है कि साधक कठोर, भावहीन या उदासीन हो जाए, बल्कि यह है कि वह संबंधों में रहते हुए भी उनका आधार ब्रह्म को माने, न कि देह-आधारित पहचान को। यह दृष्टि विकसित होने पर संबंध साधक को बांधते नहीं, बल्कि साधना में सहायक बनते हैं। यही कारण है कि मुनिजन—जो मन को अंतर्मुख कर चुके हैं—इस मोह को जीतकर "विष्णोः परमं पदम्" यानी ब्रह्म के परम पद को प्राप्त होते हैं। यहाँ "विष्णु" का अर्थ सर्वव्यापक, सर्वव्यापी चैतन्य से है, न कि केवल एक साकार देवता से।
मोह को जीतना साधारण कार्य नहीं है, क्योंकि यह जन्मों-जन्मों की संस्कार-श्रृंखला और अहंकार के आधार पर खड़ा है। इसे तोड़ने के लिए विवेक (वास्तविक और अवास्तविक में भेद) और वैराग्य (अस्थायी वस्तुओं से अनासक्ति) की साधना आवश्यक है। जब साधक अपने अनुभव से देख लेता है कि देह, संबंध, संपत्ति—सब बदलने वाले और नश्वर हैं—तो उसका मोह स्वाभाविक रूप से ढीला पड़ने लगता है। वह जान लेता है कि ये सब केवल जीवन-नाटक के पात्र हैं, और उसका वास्तविक स्वरूप इन सबसे परे है।
इस मोह को छोड़ने के बाद साधक का मन अंतर्मुख हो जाता है, वह बाहरी विषयों की अपेक्षा आत्म-चिन्तन और ब्रह्मानुभूति में अधिक रमता है। तब उसमें अद्वैत का बोध प्रकट होता है—कि आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं। यही "विष्णोः परमं पदम्" है—पूर्ण मुक्त अवस्था, जहाँ न जन्म है, न मृत्यु, न बंधन, न मोक्ष—केवल शुद्ध अस्तित्व-ज्ञान-आनंद की अखंड अनुभूति।
अतः यह श्लोक हमें स्मरण कराता है कि यदि हम सचमुच परम सत्य को पाना चाहते हैं, तो हमें देह, दार, सुत और अन्य सांसारिक आसक्तियों के मोह को त्यागना ही होगा। यही मोह जन्म-मरण रूप महासमुद्र है, और इसे जीतना ही आत्मज्ञान का प्रवेश द्वार है। मुनियों का उदाहरण इसीलिए दिया गया है, ताकि साधक प्रेरित होकर इस मार्ग पर दृढ़ता से चले और अपने जीवन में वैराग्य और विवेक को स्थापित करे।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!