"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 89वां श्लोक"
"स्थूल शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
त्वमांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंकुलम् ।
पूर्ण मूत्रपुरीषाभ्यां स्थूलं निन्द्यमिदं वपुः ॥ ८९ ॥
अर्थ:-त्वचा, मांस, रक्त, स्नायु (नस), मेद, मज्जा और अस्थियों का समूह तथा मल-मूत्र से भरा हुआ यह स्थूल देह अति निन्दनीय है।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का 89वाँ श्लोक है जिसमें शंकराचार्य जी ने देह की वास्तविक स्थिति का गहन विवेचन किया है। सामान्यतः मनुष्य अपने शरीर को ही ‘मैं’ मान बैठता है और उसके सौंदर्य, बल और यौवन में आसक्त हो जाता है। लेकिन जब गहराई से विचार किया जाए तो यह देह वास्तव में किससे बनी है? यह त्वचा, मांस, रक्त, नसें, वसा, मज्जा और अस्थियों का एक ढेर मात्र है। इसके अतिरिक्त इसमें निरंतर मूत्र और मल भरे रहते हैं। ऐसी स्थिति में जो देह दिखने में आकर्षक प्रतीत होती है, उसका वास्तविक स्वरूप अत्यंत निन्दनीय और तिरस्कार योग्य है। यही कारण है कि शंकराचार्य जी साधक को बार-बार देह के वास्तविक स्वरूप पर विचार करने की प्रेरणा देते हैं।
मनुष्य की आसक्ति का सबसे बड़ा कारण यह स्थूल शरीर ही है। इसे सुंदर बनाने और सजाने-सँवारने में व्यक्ति जीवन का बहुत बड़ा भाग खर्च कर देता है। किंतु यदि कोई भीतर से देखे तो यही शरीर दुर्गंधयुक्त, नश्वर और क्षणभंगुर है। यह दिन-रात परिवर्तनशील रहता है—बाल सफेद हो जाते हैं, दाँत गिर जाते हैं, अंग दुर्बल हो जाते हैं। जिस शरीर को लेकर व्यक्ति अहंकार करता है, वही शरीर रोग और मृत्यु का घर है। इस प्रकार यह देह सुख का नहीं बल्कि दुःख का कारण अधिक है।
शंकराचार्य जी इस श्लोक के माध्यम से साधक को ‘वैराग्य’ की ओर प्रेरित करना चाहते हैं। जब साधक बार-बार स्मरण करता है कि यह शरीर केवल नश्वर तत्वों का समूह है, तब वह इसमें ‘मैंपन’ नहीं मानता। शरीर की देखभाल करना आवश्यक है, क्योंकि यह साधन है, साध्य नहीं। परंतु इसे आत्मा समझकर इससे आसक्त होना और इसकी शोभा पर गर्व करना अज्ञान है। विवेकशील साधक को समझना चाहिए कि आत्मा शुद्ध, नित्य और निराकार है, जबकि यह देह अस्थायी और जड़ है।
इस श्लोक में शरीर के भीतर के घटकों को स्पष्ट रूप से बताकर यह दिखाया गया है कि बाहरी सौंदर्य केवल एक भ्रम है। जैसे किसी पात्र को सोने-चाँदी से मढ़ दिया जाए, पर उसके भीतर गंदगी भरी हो, तो वह प्रशंसा के योग्य नहीं हो सकता; उसी प्रकार यह शरीर भी बाहर से सजाने पर भी भीतर की वास्तविकता से तुच्छ ही है। जब साधक इस सत्य का अनुभव करता है तो उसे संसारिक आकर्षण से विरक्ति होने लगती है और उसका मन आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त होता है।
इस श्लोक में ‘निन्द्यमिदं वपुः’ कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि यह शरीर स्तुति के योग्य नहीं है। साधक को चाहिए कि वह इसकी सच्चाई को जानकर इसके मोह को त्यागे। इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर से घृणा करनी है, बल्कि यह समझना है कि यह शरीर साधन मात्र है—नाव के समान। जैसे नाव का उपयोग नदी पार करने के लिए किया जाता है, उसी तरह शरीर का उपयोग आत्मसाक्षात्कार के लिए करना है। लेकिन यदि कोई नाव को ही लक्ष्य मान ले, तो वह गंतव्य तक नहीं पहुँच सकता।
अतः शंकराचार्य जी का उपदेश है कि इस शरीर को वास्तविक दृष्टि से देखो। यह जड़, नश्वर, परिवर्तनशील और मल-मूत्र से भरा हुआ है। इसे ‘मैं’ मानना मूर्खता है। आत्मा इसका साक्षी है, उससे भिन्न और सदा शुद्ध है। जब साधक यह विवेकपूर्वक समझ लेता है, तब उसका मन देह-मोह से मुक्त होकर आत्मा के सत्य स्वरूप की ओर उन्मुख होता है, और यही मोक्ष की ओर बढ़ने का वास्तविक मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!