"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 90वां श्लोक"
"स्थूल शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
पञ्चीकृतेभ्यो भूतेभ्यः स्थूलेभ्यः पूर्वकर्मणा।
समुत्पन्नमिदं स्थूलं भोगायतनमात्मनः ।
अवस्था जागरस्तस्य स्थूलार्थानुभवो यतः ॥ ९० ॥
अर्थ:-पंचीकृत स्थूल भूतों से पूर्व-कर्मानुसार उत्पन्न हुआ यह शरीर आत्मा का स्थूल भोगायतन है; इसकी [ प्रतीति की] अवस्था जाग्रत् है, जिसमें कि स्थूल पदार्थों का अनुभव होता है।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का 90वाँ श्लोक है, जिसमें शंकराचार्य जी ने स्थूल शरीर की उत्पत्ति, उसकी भूमिका और उससे सम्बद्ध जाग्रत अवस्था का अत्यंत स्पष्ट वर्णन किया है। वे बताते हैं कि यह स्थूल शरीर पंचीकृत पाँच स्थूल भूतों—पृथ्वी, आप, तेज, वायु और आकाश—से बना है। इन भूतों का पंचीकरण अर्थात एक-दूसरे में संमिश्रण हुआ, जिससे स्थूल जगत की विविध वस्तुएँ बनीं। इन्हीं तत्वों के संयोजन से यह शरीर भी निर्मित हुआ है। परन्तु केवल पंचतत्वों का मेल ही पर्याप्त नहीं, शरीर का प्रादुर्भाव जीव के पूर्वकर्मों के आधार पर होता है। प्रत्येक जीव अपने संचित कर्मफल का अनुभव करने के लिए ही जन्म लेता है, और यह शरीर उसी अनुभव का साधन है। इस प्रकार यह स्थूल देह आत्मा के लिए भोगायतन—भोग करने का स्थान—मानी जाती है।
यहाँ शंकराचार्य जी यह भी बताते हैं कि आत्मा स्वयं जन्म नहीं लेती, वह शुद्ध, नित्य, अकर्ता और अभोक्ता है। किंतु जब वह अविद्या के आवरण से ढँक जाती है, तब सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के माध्यम से भोग का अनुभव करती है। स्थूल शरीर आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है, परंतु कर्मों के बंधन से जीव को यह स्वीकार करना पड़ता है। अतः यह देह वास्तव में साधन मात्र है, साध्य नहीं। विवेकी साधक को समझना चाहिए कि शरीर केवल पूर्वकर्मों का परिणाम है, और इसका उद्देश्य आत्मा को संसार के सुख-दुःख का अनुभव कराना है।
इस स्थूल शरीर के साथ जो अवस्था जुड़ी हुई है, उसे जाग्रत अवस्था कहा गया है। जाग्रत अवस्था में जीव बाहरी इंद्रियों के माध्यम से स्थूल पदार्थों का अनुभव करता है—रंग, रूप, गंध, रस और स्पर्श। मन और बुद्धि इंद्रियों के द्वारा प्राप्त इन विषयों का संज्ञान लेते हैं और आनंद या क्लेश का अनुभव होता है। जब तक जीव जाग्रत अवस्था में रहता है, तब तक उसे बाह्य विश्व वास्तविक प्रतीत होता है। परंतु वास्तव में यह अनुभव भी आत्मा की चैतन्य शक्ति से ही संभव है। आत्मा ही साक्षी है, वही इस जाग्रत अवस्था का अनुभव करता है, किंतु अज्ञानवश जीव यह मान लेता है कि वह स्वयं भोगी है।
शंकराचार्य जी का उद्देश्य यहाँ साधक को यह समझाना है कि जाग्रत अवस्था और स्थूल देह दोनों ही आत्मा से भिन्न हैं। यदि कोई यह मान ले कि यही शरीर और यही अनुभव आत्मा का स्वरूप है, तो वह भ्रम में है। शरीर नश्वर है, कर्मों से बंधा है और अंततः पंचतत्वों में विलीन हो जाएगा। आत्मा नित्य है, परमानंदस्वरूप है और किसी भी अवस्था—जाग्रत, स्वप्न या सुषुप्ति—से बंधी हुई नहीं है। परंतु जब तक जीव आत्मा और शरीर में अंतर नहीं करता, तब तक वह जाग्रत अवस्था के स्थूल अनुभवों को ही सत्य मानता है और संसार के मोह में फँसा रहता है।
अतः इस श्लोक का मर्म यह है कि स्थूल शरीर केवल आत्मा का एक उपकरण है, जो कर्मानुसार प्राप्त हुआ है और भोग का साधन मात्र है। जाग्रत अवस्था में यह उपकरण बाह्य जगत का अनुभव कराता है, किंतु साधक का लक्ष्य इस अनुभव से परे जाकर आत्मा के स्वरूप को जानना होना चाहिए। विवेक और वैराग्य से युक्त होकर जब साधक यह समझ लेता है कि देह, इंद्रियाँ और जगत आत्मा नहीं हैं, तब वह आत्मज्ञान की दिशा में आगे बढ़ता है। यही विवेकचूडामणि का मुख्य प्रयोजन है—भ्रम का निवारण कर आत्मा और अनात्मा के बीच स्पष्ट भेद स्थापित करना।
क्या आप चाहेंगे कि मैं इस श्लोक की व्याख्या में जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओं का परस्पर संबंध भी विस्तार से समझाऊँ, क्योंकि आगे के श्लोकों में शंकराचार्य जी यही प्रवाह रखते हैं?
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!