"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 91वां श्लोक"
"स्थूल शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
बाह्येन्द्रियैः स्थूलपदार्थसेवां स्त्रक्चन्दनस्त्र्यादिविचित्ररूपाम् ।
करोति जीवः स्वयमेतदात्मना तस्मात्प्रशस्तिर्वपुषोऽस्य जागरे ॥ ९१ ॥
अर्थ:-इससे तादात्म्य को प्राप्त होकर ही जीव माला, चन्दन तथा स्त्री आदि नाना प्रकार के स्थूल पदार्थों को बाह्येन्द्रियों से सेवन करता है, इसलिये जाग्रत्-अवस्था में इस (स्थूल) देह की प्रधानता है।
विवेकचूडामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जी ने जाग्रत अवस्था की विशेषता और उसमें स्थूल देह की भूमिका का वर्णन किया है। श्लोक में कहा गया है कि जीवात्मा जब स्थूल शरीर के साथ तादात्म्य स्वीकार करता है, तभी वह बाह्य इन्द्रियों के माध्यम से स्थूल पदार्थों का अनुभव करता है। पुष्पमालाएं, चन्दन, स्त्रियाँ और अन्य विषय-वस्तुएँ, ये सब बाह्य इन्द्रियों द्वारा ही अनुभव में आती हैं। यदि देह और इन्द्रियों के साथ आत्मा का संबंध न हो, तो इन सबका कोई अनुभव ही संभव नहीं है। इस कारण जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर की प्रधानता और प्रशंसा बताई गई है।
जीव आत्मा स्वरूपतः शुद्ध, साक्षी और निरपेक्ष है, परन्तु अज्ञान के कारण वह शरीर को अपना मान लेता है और ‘मैं’ तथा ‘मेरा’ का भाव स्थूल शरीर और इन्द्रियों में कर लेता है। इस तादात्म्य के कारण वह बाह्य पदार्थों के सुख-दुख का अनुभव करता है। उदाहरण के लिए, जब कोई मनुष्य गले में माला धारण करता है, चन्दन का लेप करता है या स्त्रियों के साथ सुख का अनुभव करता है, तो वास्तव में आत्मा इन सबका भोगी नहीं है, बल्कि वह तो मात्र साक्षी है। किन्तु चूँकि आत्मा शरीर और इन्द्रियों के साथ अभेद मान बैठा है, इसलिए वह स्वयं को भोगी समझने लगता है। यही जीव की बन्धनावस्था है।
जाग्रत अवस्था का तात्पर्य है – जब इन्द्रियां बाहर की ओर प्रवृत्त होती हैं और स्थूल जगत् का अनुभव करती हैं। इस अवस्था में स्थूल शरीर की आवश्यकता होती है क्योंकि वही भोग और अनुभव का साधन है। यदि शरीर न हो, तो न आंखों से रूप दिखेगा, न कानों से शब्द सुनाई देगा, न जीभ से रस का अनुभव होगा और न त्वचा से स्पर्श का। इसीलिए कहा गया है कि जाग्रत अवस्था में इस स्थूल शरीर की प्रशंसा है। वास्तव में आत्मा न तो इन अनुभवों का इच्छुक है और न ही वह इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन लाता है। वह तो केवल चैतन्य स्वरूप है, परन्तु अज्ञानवश शरीर के साथ लिप्त होकर स्वयं को भोक्ता मान लेता है।
यह श्लोक साधक को यह समझाने के लिए है कि आत्मा और शरीर का संबंध केवल अज्ञानजन्य है। आत्मा यदि अपनी शुद्ध साक्षी स्थिति को पहचान ले, तो वह शरीर के भोग और अनुभव से परे हो जाता है। किन्तु जब तक वह जाग्रत अवस्था में शरीर को ही ‘मैं’ मानता रहेगा, तब तक उसे विषयभोग और उनसे उत्पन्न होने वाले सुख-दुख का सामना करना ही पड़ेगा। वास्तव में आत्मा न सुखी है और न दुखी, वह तो निरपेक्ष और नित्य आनन्दरूप है।
शंकराचार्य जी यहाँ संकेत करते हैं कि साधक को विवेक करना चाहिए। यह देखना चाहिए कि माला, चन्दन, स्त्री आदि सब क्षणभंगुर हैं। इनका अनुभव केवल जाग्रत अवस्था में और शरीर के रहते हुए ही संभव है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप इन सबसे परे है। यदि साधक इस विवेक को दृढ़ कर ले, तो जाग्रत अवस्था के विषय-विकार उसमें आसक्ति उत्पन्न नहीं करेंगे। वह समझेगा कि शरीर की ही प्रशंसा है, आत्मा की नहीं। आत्मा का तो कार्य केवल साक्षी भाव में रहना है।
अतः यह श्लोक साधक को जाग्रत अवस्था की सीमाओं और स्थूल शरीर के बन्धन को स्पष्ट करता है। जब तक आत्मा शरीर के साथ तादात्म्य करता है, तब तक वह विषयभोग का अनुभव करता है और बन्धन में रहता है। जब यह तादात्म्य टूट जाता है और आत्मा अपनी शुद्ध चैतन्य स्थिति का अनुभव करता है, तभी मोक्ष का द्वार खुलता है। इस प्रकार इस श्लोक का संदेश है कि जाग्रत अवस्था में जो भी अनुभव होते हैं, वे केवल शरीर और इन्द्रियों के कारण हैं, आत्मा उन सबसे परे और स्वतन्त्र है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!