"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 92वां श्लोक"
"स्थूल शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
सर्वोऽपि बाह्यसंसारः पुरुषस्य यदाश्रयः ।
विद्धि देहमिदं स्थूलं गृहवद्गृहमेधिनः ॥ ९२ ॥
अर्थ:-जिसके आश्रय से जीव को सम्पूर्ण बाह्य जगत् प्रतीत होता है, गृहस्थ के घर के तुल्य उसे ही स्थूल देह जानो।
शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि के इस श्लोक में स्थूल देह की भूमिका और उसकी सीमा का गहन विवेचन प्रस्तुत किया गया है। श्लोक कहता है कि “संपूर्ण बाह्य संसार पुरुष को जिस आधार से प्रतीत होता है, उस आधार को जानो कि यह स्थूल शरीर है, जैसे गृहस्थ का घर उसके लिए आश्रय होता है।” यहाँ स्पष्ट किया गया है कि हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला समस्त जगत् इस स्थूल देह के आश्रय से ही संभव है। जब तक यह शरीर है, तब तक जीव अपने को इस संसार से जुड़ा हुआ अनुभव करता है; जैसे गृहस्थ जब तक घर में रहता है तब तक घर उसका आश्रय और जगत से संपर्क का साधन होता है।
मनुष्य का सम्पूर्ण बाह्य अनुभव इन्द्रियों के माध्यम से होता है और इन्द्रियों का आधार यह शरीर है। आँखें, कान, त्वचा, नाक और जीभ—ये सब शरीर के अंग हैं, और इनके द्वारा ही जीव संसार के विविध रूप, रस, गंध, स्पर्श और ध्वनि को अनुभव करता है। यदि यह स्थूल शरीर न हो, तो जीव का बाह्य जगत् से कोई संबंध ही नहीं रह सकता। इस दृष्टि से शरीर गृह के समान है; जैसे गृहस्थ का जीवन उसके घर से बंधा होता है, वैसे ही जीव का संसार से बंधन शरीर पर आधारित है। लेकिन शंकराचार्य का उद्देश्य केवल इतना दिखाना नहीं है कि शरीर संसार का आधार है, बल्कि यह भी इंगित करना है कि यह आधार अस्थायी और सीमित है।
गृहस्थ का घर स्थायी नहीं होता; वह बदल भी सकता है, नष्ट भी हो सकता है, और उसमें रहने वाला व्यक्ति भी कभी न कभी उसे छोड़ देता है। ठीक इसी प्रकार, स्थूल शरीर भी नश्वर है। यह जन्म लेता है, बढ़ता है, रोग और वृद्धावस्था को प्राप्त करता है और अंततः मर जाता है। जिस बाह्य संसार का अनुभव जीव इस शरीर के माध्यम से करता है, वह भी उसी के साथ समाप्त हो जाता है। इसलिए शरीर को आत्मा का वास्तविक स्वरूप या स्थायी आश्रय नहीं समझना चाहिए। आत्मा का सत्य स्वरूप देह से परे है।
यहाँ शंकराचार्य यह बोध कराना चाहते हैं कि जब तक जीव अपने को शरीर मानता है, तब तक संसार का अनुभव और उससे बंधन अनिवार्य है। जैसे गृहस्थ जब तक घर में है, तब तक घर की सुख-दुःख की स्थितियों से जुड़ा हुआ है, वैसे ही जीव जब तक शरीर के साथ तादात्म्य करता है, तब तक संसार के सुख-दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। परन्तु जब यह विवेक जाग्रत होता है कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ, बल्कि शुद्ध आत्मा हूँ’, तब जीव का दृष्टिकोण बदल जाता है।
इस श्लोक से यह शिक्षा मिलती है कि स्थूल देह को केवल साधन समझना चाहिए, साध्य नहीं। यह साधन केवल बाह्य जगत् के अनुभव के लिए है, आत्मा की पहचान के लिए नहीं। आत्मा की पहचान तो तभी संभव है जब हम शरीर से परे जाकर अपने चैतन्य स्वरूप को जानें। इसलिए विवेकशील साधक को चाहिए कि वह शरीर को वास्तविक स्वरूप मानकर आसक्त न हो, बल्कि इसे एक अस्थायी घर समझे जो आत्मा के लिए केवल अस्थायी आश्रय है। जैसे बुद्धिमान गृहस्थ जानता है कि घर उसका परम लक्ष्य नहीं है, वैसे ही साधक को भी जानना चाहिए कि शरीर ही उसका सत्य स्वरूप नहीं है।
इस प्रकार यह श्लोक हमें यह गहरी प्रेरणा देता है कि हम शरीर और संसार को केवल साधन रूप में देखें, न कि आत्मा का अंतिम सत्य मानें। जब यह दृष्टि दृढ़ होती है, तभी जीव मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकता है, क्योंकि तब वह अपने चैतन्य स्वरूप—आत्मा और ब्रह्म—की ओर मुड़ता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!