"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 93वां श्लोक"
"स्थूल शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
स्थूलस्य सम्भवजरामरणानि धर्माः स्थौल्यादयो बहुविधाः शिशुताद्यवस्थाः ।
वर्णाश्रमादिनियमा बहुधा यमाः स्युः पूजावमानबहुमानमुखा विशेषाः ॥ ९३ ॥
अर्थ:-स्थूल देह के ही जन्म, जरा, मरण तथा स्थूलता आदि धर्म हैं; बालकपन आदि नाना प्रकार की अवस्थाएँ हैं; वर्णाश्रमादि अनेक प्रकार के नियम और यम हैं; तथा इसी की पूजा, मान, अपमान आदि विशेषताएँ हैं।
इस श्लोक में आदि शंकराचार्य जीव के स्थूल शरीर की विशेषताओं का विवेचन करते हैं और बताते हैं कि यह शरीर ही जन्म, जरा और मृत्यु का आधार है। आत्मा तो नित्य, अविनाशी और अजर-अमर है, उसमें किसी प्रकार का जन्म अथवा परिवर्तन नहीं होता। किंतु स्थूल देह प्रकृति से बना होने के कारण उसमें यह सभी गुण और धर्म पाए जाते हैं। जीव के संसार में पड़ने का कारण भी यही शरीर है क्योंकि इसकी उत्पत्ति पंचमहाभूतों के संयोग से हुई है और यह कर्मफलभोग का क्षेत्र है।
जब यह कहा जाता है कि जन्म, जरा और मृत्यु शरीर के धर्म हैं, तो इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा इनमें लिप्त नहीं होती। आत्मा केवल साक्षी है, वह न तो जन्म लेती है और न ही मरती है। शरीर की उत्पत्ति होने पर हम कहते हैं “मैं जन्मा”, शरीर की वृद्धावस्था आने पर कहते हैं “मैं बूढ़ा हुआ” और शरीर के नाश पर कहते हैं “मैं मर गया”। किंतु वास्तव में यह सब शरीर के साथ जुड़ा हुआ है, आत्मा के साथ नहीं। यह अज्ञान के कारण आत्मा को शरीर के साथ तादात्म्य मान लेने से मोह उत्पन्न होता है।
इसी शरीर में शैशव, बाल्य, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वार्धक्य जैसी विविध अवस्थाएँ आती हैं। शरीर की स्थिति बदलती रहती है, किंतु आत्मा इन परिवर्तनों से सर्वथा परे है। यह दृष्टि साधक को विवेक प्रदान करती है कि उसे अपने अस्तित्व को शरीर में नहीं, बल्कि आत्मा में देखना चाहिए। शरीर का बालकपन या वृद्धावस्था आत्मा की स्थिति को नहीं छूती, जैसे सूर्य पर बादलों के आने-जाने से उसका स्वरूप नहीं बदलता।
शंकराचार्य यहाँ यह भी इंगित करते हैं कि वर्ण, आश्रम, धर्म, यम और नियम आदि सभी व्यवस्थाएँ शरीर पर आधारित हैं। मनुष्य का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होना या ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में विभक्त होना सब शरीर की स्थिति से निर्धारित होता है। आत्मा के स्तर पर इनमें कोई भेद नहीं है। यह सारी व्यवस्था समाज की सुचारुता और साधना की सीढ़ियाँ मात्र हैं, जिनका संबंध शरीर और उसकी भूमिकाओं से है, आत्मा से नहीं।
इसी प्रकार समाज में पूजा, सम्मान, मान-सम्मान या अपमान—ये सब भी शरीर से जुड़े हुए हैं। किसी के शरीर, पद या बाहरी व्यवहार को देखकर ही लोग पूजा या तिरस्कार करते हैं। आत्मा तो इन सबसे परे, नितांत निरपेक्ष और अपरिवर्तनशील है। किंतु जीव जब देह को ही अपना स्वरूप मान लेता है, तब वह पूजा मिलने पर प्रसन्न होता है और अपमान मिलने पर दुखी हो जाता है। यह सब बंधन का कारण है।
इस श्लोक का गहरा संदेश यह है कि साधक को बार-बार स्मरण करना चाहिए कि जो कुछ भी परिवर्तनशील है, वह शरीर का धर्म है, आत्मा का नहीं। आत्मा तो सदा एकरस, साक्षी और शुद्ध चैतन्य है। शरीर के माध्यम से धर्म, यज्ञ, तप, यम, नियम आदि साधनाएँ करना आवश्यक है, किंतु उन सबका उद्देश्य आत्मा के स्वरूप को पहचानना है। जब यह भेद स्पष्ट हो जाता है, तभी साधक वास्तविक वैराग्य प्राप्त करता है और संसार में रहते हुए भी उससे परे हो जाता है। यही विवेक का लक्षण है और यही आत्मज्ञान की ओर पहला कदम है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!