"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 94वां श्लोक"
"दस इन्द्रियाँ"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
बुद्धीन्द्रियाणि श्रवणं त्वगक्षि घ्राणं च जिह्वा विषयावबोधनात् ।
वाक्पाणिपादं गुदमप्युपस्थः कर्मेन्द्रियाणि प्रवणेन कर्मसु ॥ ९४ ॥
अर्थ:-श्रवण, त्वचा, नेत्र, घ्राण और जिह्वा ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनसे विषय का ज्ञान होता है; तथा वाक्, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ -ये कर्मेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनका कर्मों की ओर झुकाव होता है।
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि के इस श्लोक में मानव जीवन के आध्यात्मिक विकास हेतु अत्यंत गहन विषय को प्रस्तुत किया गया है। यहाँ पर पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों का उल्लेख है। श्लोक में कहा गया है कि श्रवण (कान), त्वचा, नेत्र (आँख), घ्राण (नाक) और जिह्वा – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनके माध्यम से जीव बाहरी जगत् के विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। इसी प्रकार वाक् (वाणी), पाणि (हाथ), पाद (पाँव), गुदा और उपस्थ – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं, जिनके द्वारा जीव बाहरी कर्मों में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार यह श्लोक सूक्ष्म शरीर की रचना और उसकी कार्यप्रणाली को स्पष्ट करता है।
ज्ञानेन्द्रियाँ वस्तुतः आत्मा को जगत् से जोड़ने वाले द्वार हैं। श्रवण के द्वारा ध्वनि, त्वचा से स्पर्श, नेत्र से रूप, घ्राण से गंध और जिह्वा से रस का अनुभव होता है। इन पाँचों के बिना जीव बाहरी जगत का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं कर सकता। इसी कारण इन्हें ज्ञान प्राप्ति का साधन कहा गया है। उपनिषदों में भी बार-बार कहा गया है कि ये इन्द्रियाँ आत्मा से भिन्न हैं, परन्तु आत्मा के प्रकाश में ही इनकी शक्ति प्रकट होती है। बिना आत्मचैतन्य के इन्द्रियाँ निष्प्राण हैं। परंतु जब जीवात्मा अज्ञानवश देह और इन्द्रियों के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह स्वयं को इन्हीं इन्द्रियों तक सीमित मान बैठता है और बाह्य विषयों में आसक्त हो जाता है।
दूसरी ओर कर्मेन्द्रियाँ जीव की प्रवृत्ति और क्रियाशीलता का दर्पण हैं। वाणी के द्वारा वाणी-प्रयोग और संवाद, पाणि से ग्रहण और परित्याग, पाद से गमन-आगमन, गुदा से त्याग और उपस्थ से सृजन का कार्य सम्पन्न होता है। यदि ज्ञानेन्द्रियाँ बाहरी संसार से विषयों का ज्ञान कराती हैं तो कर्मेन्द्रियाँ उन विषयों में प्रवृत्त कराती हैं। ज्ञान और कर्म का यह चक्र ही संसार को निरंतर गति देता है। परंतु यही गति बन्धन का कारण भी बनती है। जब इन्द्रियाँ विषयों की ओर अनियंत्रित प्रवृत्त होती हैं, तब जीव मोह और आसक्ति में बँध जाता है।
शास्त्रों में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का संयम ही आत्मसाक्षात्कार का आधार है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस साधक ने अपनी इन्द्रियों को संयमित कर लिया है, वही स्थिरबुद्धि योगी है। यदि कान निरंतर विषयासक्ति की बातें सुनते रहेंगे, आँखें केवल भोग-वस्तुओं की ओर देखेंगी, जिह्वा स्वाद में लिप्त रहेगी, तो मन कभी शांत नहीं होगा। उसी प्रकार यदि वाणी असत्य और कटु बोले, हाथ हिंसा करें, पाँव व्यर्थ भटकें, गुदा और उपस्थ केवल भोग की प्रवृत्ति में लगे रहें, तो साधक की चेतना शुद्ध नहीं हो सकती।
इसलिए विवेकचूडामणि का यह श्लोक साधक को स्मरण कराता है कि इन्द्रियों के द्वारा ही संसार का अनुभव होता है और उन्हीं के द्वारा जीव कर्म करता है। इन्हें संयमित करके साधक को आत्मा की ओर मोड़ना चाहिए। जब ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य विषयों से हटकर आत्मचिंतन की ओर प्रवृत्त हों और कर्मेन्द्रियाँ केवल धर्मपूर्ण और आत्मोन्नति के कार्यों में लगें, तब ही साधक की प्रगति संभव है। इन्द्रियों की यही शुद्धि धीरे-धीरे मन की शुद्धि में परिणत होती है और अंततः आत्मज्ञान की उपलब्धि कराती है।
अतः यह श्लोक हमें केवल शरीर की संरचना नहीं बताता, बल्कि यह भी सिखाता है कि ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का संतुलन और संयम ही आध्यात्मिक साधना का मूल है। बाह्य विषयों में आसक्त होकर मनुष्य बंधन में फँसता है, किंतु उन्हीं इन्द्रियों को आत्मानुशासन में रखकर वह मुक्तिपथ पर अग्रसर होता है। यही विवेक है और यही साधना की वास्तविक दिशा है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!