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गुरुवार, 21 अगस्त 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 95वां एवं 96वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 95वां एवं 96वां श्लोक"

"अन्तःकरणचतुष्टय"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी-रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः ।

मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि-बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥

अत्राभिमानादहमित्यहङ्‌कृतिः स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ॥ ९६ ॥

अर्थ:-अपनी वृत्तियों के कारण अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार [ इन चार नामों से ] कहा जाता है। संकल्प-विकल्प के कारण मन, पदार्थ का निश्चय करने के कारण बुद्धि, 'अहम्-अहम्' (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करने से अहंकार, और अपना इष्ट-चिन्तन के कारण यह चित्त कहलाता है।

आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि के इन श्लोकों में अन्तःकरण की सूक्ष्म व्याख्या की गई है। सामान्यतः हम मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को अलग-अलग इकाइयाँ मानते हैं, परन्तु वास्तव में ये सब एक ही अन्तःकरण की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ या वृत्तियाँ हैं। जिस प्रकार एक ही जल अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार नदी, झील, वर्षा या समुद्र कहलाता है, उसी प्रकार अन्तःकरण भी अपनी क्रियाओं के आधार पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है। यह मनुष्य की आन्तरिक शक्ति है, जो बाह्य जगत् और आत्मा के बीच सेतु का कार्य करती है। जीव के अनुभव, ज्ञान, निर्णय और अहंकार—आदि इसी के द्वारा सम्पन्न होते हैं।

मन की पहली अवस्था संकल्प-विकल्प है। जब भी कोई विषय सामने आता है, तब अन्तःकरण विचार करता है कि इसे ग्रहण करना है या त्यागना है। यह द्वन्द्वात्मक स्थिति मन की विशेषता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति को फल दिखे, तो उसका मन यह सोचता है कि इसे खाऊँ या न खाऊँ। यह हाँ-ना, उचित-अनुचित, करना-न-करना का द्वन्द्व ही मन का धर्म है। इसीलिए इसे मन कहा गया है। मन स्थायी निर्णय नहीं लेता, बल्कि केवल विचार और विकल्प प्रस्तुत करता है।

इसके बाद बुद्धि का स्थान आता है। बुद्धि वह शक्ति है, जो पदार्थ का निश्चय करती है। जो कार्य उचित है, क्या सत्य है, क्या असत्य है—यह विवेक बुद्धि का कार्य है। बुद्धि अन्तःकरण की वह अवस्था है, जो निर्णय लेकर जीव को आगे बढ़ाती है। यदि मन यह सोचता है कि फल खाऊँ या न खाऊँ, तो बुद्धि यह निर्णय करेगी कि यह फल स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है, अतः इसे खाना उचित है। इस प्रकार बुद्धि निश्चयात्मक शक्ति है, जो सत्य-असत्य, हित-अहित और वास्तविक-अवास्तविक का विवेक कराती है।

अहंकार अन्तःकरण का तीसरा रूप है। यह वह वृत्ति है, जिसमें ‘मैं’ का भाव प्रकट होता है। ‘मैं करता हूँ’, ‘मेरा है’, ‘मुझे चाहिए’—ये सब अभिमान और ‘अहम्-अहम्’ की धारणाएँ अहंकार की अभिव्यक्ति हैं। जीव का व्यक्तित्व और उसकी व्यक्तिगत पहचान अहंकार के कारण ही प्रकट होती है। अहंकार के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं होता, क्योंकि वही ‘कर्तृत्व’ और ‘भोक्तृत्व’ का अनुभव कराता है। परन्तु जब यह अहंकार आत्मज्ञान से रहित होता है, तब यही बन्धन का कारण बनता है।

चित्त अन्तःकरण की चौथी अवस्था है। यह स्मरण और मनन का क्षेत्र है। चित्त का मुख्य धर्म है—स्मृति और मनन। मनुष्य जो भी अनुभव करता है, उसका संस्कार चित्त में संचित हो जाता है। यही चित्त समय-समय पर उन अनुभवों को स्मृति के रूप में बाहर लाता है और जीव को पुनः उसी विषय की ओर प्रवृत्त करता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी को अपने बचपन का कोई प्रसंग याद आता है, तो वह स्मरण चित्त का कार्य है। इसी प्रकार अपने इष्ट का चिन्तन, भक्ति और ध्यान भी चित्त के द्वारा ही सम्भव होते हैं।

इस प्रकार शंकराचार्य ने बताया कि मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त कोई अलग-अलग सत्ता नहीं हैं, बल्कि अन्तःकरण की ही भिन्न-भिन्न वृत्तियाँ हैं। जीव का सम्पूर्ण आन्तरिक जीवन इन्हीं चारों के आधार पर चलता है। मनुष्य का व्यवहार, निर्णय, स्मरण और व्यक्तित्व—सबका मूल यही अन्तःकरण है। अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने अन्तःकरण को शुद्ध करे, मन को स्थिर बनाए, बुद्धि को सत्य के मार्ग में दृढ़ रखे, अहंकार को त्यागकर आत्मस्वरूप में स्थिर हो और चित्त को भगवद्-चिन्तन में लगाकर मुक्तिपथ की ओर अग्रसर हो। यही विवेकचूडामणि का गूढ़ संदेश है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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