"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 97वां श्लोक"
"पंचप्राण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः । स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सुवर्णसलिलादिवत् ॥ ९७ ॥
अर्थ:-अपने विकारों के कारण सुवर्ण और जल आदि के समान स्वयं प्राण ही वृत्ति भेद से प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-इन पाँच नामों वाला होता है।
यहाँ आचार्य शंकराचार्य प्राण के स्वरूप और उसकी विभिन्न वृत्तियों का विवेचन कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार एक ही सुवर्ण से अनेक प्रकार के आभूषण बन जाते हैं या एक ही जल अलग-अलग परिस्थितियों में नाना रूप धारण कर लेता है, वैसे ही एक ही प्राण तत्त्व अपनी-अपनी क्रियाओं और कार्य-क्षेत्रों के कारण पाँच प्रकारों में विभाजित माना जाता है। वस्तुतः प्राण एक ही है, परंतु उसकी गतिविधियों और कार्यों के आधार पर उसे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान नाम से जाना जाता है। यह पंच-प्राण ही शरीर और मन के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और जीवन को टिकाए रखते हैं।
‘प्राण’ का विशेष कार्य श्वास-प्रश्वास को संचालित करना है। यह हृदय और फेफड़ों के क्षेत्र में मुख्यतः कार्य करता है और जीव के जीवन-संचालन का आधार है। यदि प्राण न हो तो जीवित रहना असंभव है। प्राण के द्वारा ही हम श्वास लेते हैं और जीवन-ऊर्जा को ग्रहण करते हैं। इसीलिए वेद और उपनिषदों में प्राण को जीवन का आधार कहा गया है।
‘अपान’ की गति नीचे की ओर मानी जाती है। यह मल, मूत्र, पसीना आदि के निष्कासन का कार्य करता है। मनुष्य के शरीर में जो भी अपशिष्ट पदार्थ हैं, उन्हें बाहर निकालने की जिम्मेदारी अपान प्राण की है। इसके कारण शरीर शुद्ध और संतुलित बना रहता है। यदि अपान का कार्य व्यवस्थित न हो तो शरीर में रोग और विषमता उत्पन्न हो जाती है।
‘व्यान’ प्राण की गतिविधि पूरे शरीर में फैली रहती है। यह रक्त संचार, स्नायु-संचालन तथा शरीर के प्रत्येक अंग में ऊर्जा के वितरण का कार्य करता है। व्यान के बिना शरीर में समन्वय और शक्ति का प्रवाह संभव नहीं है। यह प्राण की वह वृत्ति है जो पूरे शरीर को एक तंत्र की भाँति जीवंत और सक्रिय बनाए रखती है।
‘उदान’ का कार्य शरीर की उर्ध्वगामी क्रियाओं में है। यह बोलने, डकारने, उल्टी करने तथा अंततः शरीर त्यागने (मृत्यु के समय प्राण के बाहर निकलने) में सहायक होता है। यही कारण है कि उपनिषदों में कहा गया है कि मृत्यु के समय जीवात्मा का शरीर से प्रस्थान उदान प्राण के द्वारा होता है। यह प्राण की वृत्ति आत्मा को अगले लोक में ले जाने का माध्यम है।
‘समान’ का कार्य शरीर में आहार के पाचन और रस के समान वितरण में होता है। यह पेट की अग्नि को प्रज्वलित रखता है और आहार को रस, रक्त, मांस, मेद आदि धातुओं में परिवर्तित करता है। इसके बिना शरीर का पोषण और विकास संभव नहीं। समान प्राण ही सब कुछ संतुलित करके जीवन-ऊर्जा को स्थिर बनाए रखता है।
अतः शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि प्राण कोई पाँच अलग-अलग सत्ता नहीं हैं, बल्कि एक ही प्राण अपनी-अपनी गतिविधियों से पाँच रूपों में प्रकट होता है। जैसे एक ही सोना कभी कंगन, कभी हार, कभी अंगूठी बन जाता है, वैसे ही एक ही प्राण शरीर में भिन्न-भिन्न कार्य करता है। यह शिक्षा हमें यह समझाती है कि शरीर और जीवन की सभी क्रियाएँ प्राण पर आश्रित हैं, परंतु यह प्राण भी आत्मा से अलग नहीं है। आत्मा के बिना प्राण की कोई सत्ता नहीं, और आत्मा के साथ प्राण केवल उपाधि की भाँति जुड़ा है। इस विवेचन से साधक को यह ज्ञान होता है कि वास्तविक तत्त्व आत्मा है, प्राण नहीं। प्राण तो केवल आत्मा से जुड़ी देह के संचालन का साधन मात्र है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!