"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 98वां श्लोक"
"सूक्ष्म शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च प्राणादिपञ्चाश्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥
अर्थ:-वागादि पाँच कर्मेन्द्रियाँ, श्रवणादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राणादि पाँच प्राण, आकाशादि पाँच भूत, बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म यह पुर्यष्टक अथवा सूक्ष्म शरीर कहलाता है।
विवेकचूडामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जी सूक्ष्म शरीर का विवेचन करते हुए उसे ‘पुर्यष्टक’ नाम से संबोधित करते हैं। यह सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर के विपरीत है, जो पंचमहाभूतों से निर्मित होता है और दृष्टिगोचर है। सूक्ष्म शरीर अदृष्टिगोचर होने पर भी जीवात्मा के अनुभव और संसार-यात्रा का कारण बनता है। जब तक आत्मा का अज्ञान बना रहता है, तब तक यही सूक्ष्म शरीर जीव को जन्म–मरण के चक्र में बांधे रखता है। इसीलिए इसका स्वरूप समझना वेदांत साधना के लिए अत्यंत आवश्यक है।
शंकराचार्य कहते हैं कि सूक्ष्म शरीर आठ अंगों से मिलकर बना है, जिन्हें ‘पुर्यष्टक’ कहा जाता है। इनमें प्रथम हैं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ—श्रवण (कान), त्वक् (त्वचा), चक्षु (आंख), रसना (जीभ) और घ्राण (नाक)। इनका कार्य है ज्ञान प्राप्त करना अर्थात् बाहरी विषयों को ग्रहण करना। दूसरा अंग है पाँच कर्मेन्द्रियाँ—वाक् (वाणी), पाणि (हाथ), पाद (पाँव), पायु (गुदा) और उपस्थ (जननेंद्रिय)। इनका कार्य है कर्म करना, जैसे बोलना, पकड़ना, चलना, मल–विसर्जन और प्रजनन। ये दोनों इन्द्रियों के समूह सूक्ष्म शरीर के कार्यकलाप का मुख्य आधार हैं।
तीसरा है प्राण पंचक, अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। ये शरीर के भीतर जीवन–शक्ति को गतिशील रखते हैं। प्राण श्वास–प्रश्वास का, अपान नीचे की गति का, व्यान संपूर्ण शरीर में ऊर्जा वितरण का, उदान ऊपर की गति और मृत्यु के समय प्राण को बाहर ले जाने का, तथा समान भोजन पचाने और शरीर का संतुलन बनाए रखने का कार्य करता है। प्राण पंचक के बिना न तो इन्द्रियाँ कार्य कर सकती हैं और न ही शरीर जीवित रह सकता है।
चौथा अंग है पंच महाभूतों का सूक्ष्म स्वरूप। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये स्थूल रूप में दिखते हैं, परन्तु सूक्ष्म स्तर पर ही ये इन्द्रियों को विषयों का अनुभव कराते हैं। उदाहरण के लिए, कान ध्वनि को आकाश के कारण सुनता है, त्वचा स्पर्श को वायु के कारण अनुभव करती है, आंखें रूप को अग्नि के कारण देखती हैं, जीभ रस को जल के कारण चखती है और नाक गंध को पृथ्वी के कारण ग्रहण करती है। इस प्रकार इन्द्रियों और भूतों का आपसी संबंध भी सूक्ष्म शरीर की रचना में शामिल है।
पाँचवां है अन्तःकरण चतुष्टय—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन संकल्प–विकल्प करता है, बुद्धि निर्णय लेती है, चित्त स्मरण और संस्कारों को धारण करता है और अहंकार ‘मैं–पना’ का भाव उत्पन्न करता है। यह अन्तःकरण ही जीव के अनुभव, विचार और भावनाओं का केन्द्र है। इसके बिना न तो ज्ञानेन्द्रियों के अनुभवों की व्याख्या संभव है और न ही कोई कर्म संपन्न हो सकता है।
इसके अतिरिक्त अविद्या, काम और कर्म—ये तीन भी सूक्ष्म शरीर का अंग माने गए हैं। अविद्या जीव को उसकी वास्तविक आत्मस्वरूप से दूर रखती है। काम जीव को इन्द्रियों और विषयों की ओर खींचता है और कर्म उस कामना की पूर्ति के लिए कार्य करवाता है। यही कारण है कि जीव संसार में बंधा रहता है और पुनः–पुनः जन्म लेता है। इस प्रकार सूक्ष्म शरीर केवल इन्द्रियों और प्राणों का समूह नहीं है, बल्कि वह समग्र ढांचा है जिसके द्वारा जीव संसार को जानता है, भोग करता है और कर्मों के फल भोगने हेतु नए–नए शरीर धारण करता है।
अतः शंकराचार्य जी के अनुसार, जब साधक आत्मचिंतन द्वारा समझ लेता है कि यह सूक्ष्म शरीर भी मिथ्या है और आत्मा का वास्तविक स्वरूप इससे परे है, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। सूक्ष्म शरीर का ज्ञान आत्म–विवेक की नींव है और यह स्पष्ट करता है कि जीव का बंधन वास्तव में देह और अन्तःकरण के साथ तादात्म्य के कारण है, न कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप में।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!