"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 108वां श्लोक"
"प्रेमकी आत्मार्थता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
आत्मार्थत्वेन हि प्रेयान् विषयो न स्वतः प्रियः ।
स्वत एव हि सर्वेषामात्मा प्रियतमो यतः ॥ १०८ ॥
अर्थ:-विषय स्वतः प्रिय नहीं होते, किन्तु आत्मा के लिये ही प्रिय होते हैं, क्योंकि स्वतः प्रियतम तो सबका आत्मा ही है।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत गहन दार्शनिक सत्य को प्रकट करता है। सामान्यतः मनुष्य को प्रतीत होता है कि संसार के विषय – जैसे धन, प्रतिष्ठा, परिवार, इन्द्रियसुख आदि – अपने आप में प्रिय हैं और इन्हीं के कारण जीवन सार्थक है। परन्तु शंकराचार्य जी यहाँ स्पष्ट कर देते हैं कि कोई भी विषय स्वयं में प्रिय नहीं है, बल्कि वह आत्मा के संदर्भ में ही प्रिय बनता है। जब हम कहते हैं कि हमें अमुक वस्तु, व्यक्ति या अनुभव प्रिय है, तो वस्तुतः उसकी प्रियता का कारण यह है कि उससे हमें आत्मिक संतोष या सुख का आभास मिलता है। यदि किसी वस्तु से हमें कष्ट प्राप्त होने लगे, तो वही वस्तु तुरंत अप्रिय हो जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रियता वस्तु की स्वाभाविक सत्ता नहीं है, बल्कि आत्मा की ओर से उस पर आरोपित है।
आत्मा ही सबका प्रियतम है। उपनिषदों में भी याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी संवाद में यह प्रतिपादित है कि पति पत्नी को उसके अपने लिए प्रिय नहीं होता, पुत्र अपने आप में प्रिय नहीं होता, धन स्वयं प्रिय नहीं होता; वे सब आत्मा के कारण प्रिय होते हैं। आत्मा ही वह तत्व है जो नित्य है, चैतन्यस्वरूप है और अनन्त आनन्दस्वरूप है। जब विषय आत्मा के स्पर्श में आते हैं, तब तक वे प्रिय प्रतीत होते हैं, परन्तु उनके बदल जाने या दूर हो जाने पर उनकी प्रियता भी समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत आत्मा का प्रियत्व किसी शर्त या परिस्थिति पर निर्भर नहीं है। वह स्वतः प्रिय है, क्योंकि वही हमारे अस्तित्व का आधार है।
मनुष्य जब किसी वस्तु या व्यक्ति को पाने की लालसा करता है, तो उसका उद्देश्य केवल बाहरी उपलब्धि नहीं होता, बल्कि उसके पीछे यह गहरी कामना छिपी रहती है कि उससे आत्मा को सुखानुभूति हो। यदि उस वस्तु से आत्मा को सुख का अनुभव न हो, तो वह वस्तु चाहे कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो, व्यर्थ प्रतीत होती है। उदाहरण स्वरूप, किसी भूखे को भोजन प्रिय लगता है, किन्तु यदि पेट भरा हो और वही भोजन सामने रख दिया जाए तो वह अप्रिय लग सकता है। इसका अर्थ यही है कि वस्तु में प्रियत्व अंतर्निहित नहीं है।
जब यह बोध दृढ़ होता है कि आत्मा ही सर्वप्रिय है, तब साधक का दृष्टिकोण संसार की ओर से हटकर आत्मा की ओर मुड़ता है। वह समझने लगता है कि यदि आत्मा ही परम प्रिय है, तो बाहरी विषयों के पीछे भागने का कोई स्थायी समाधान नहीं है। स्थायी सुख और शांति केवल आत्मसाक्षात्कार से ही प्राप्त हो सकती है। संसारिक वस्तुएँ केवल साधन हैं, साध्य नहीं। वे आत्मा के आनन्द का आभास कराती हैं, परन्तु उसकी पूर्णता में हमें प्रवेश नहीं करातीं।
वेदांत यह सिखाता है कि जब साधक यह जान लेता है कि आत्मा ही नित्यानन्दस्वरूप है, तब वह विषयों की मृगमरीचिका से बचकर आत्मा में ही आनन्द का अनुभव करता है। यही वास्तविक वैराग्य और विवेक की नींव है। आत्मा को प्रियतम मानने का अर्थ यह है कि साधक बाहरी सुख-साधनों को साधन मात्र समझे और आत्मा के स्वरूप में स्थित हो। यही मोक्ष की ओर आगे बढ़ने का सच्चा मार्ग है।
इस प्रकार शंकराचार्य का यह श्लोक हमें गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करता है कि प्रियता का आधार वस्तुओं या संबंधों में नहीं, बल्कि आत्मा में ही है। आत्मा के बिना कोई प्रिय नहीं हो सकता, और आत्मा स्वयं में सर्वप्रिय है। यही सत्य साधक को आत्मचिंतन और आत्मबोध की ओर अग्रसर करता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!