"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 109वां श्लोक"
"प्रेमकी आत्मार्थता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
तत आत्मा सदानन्दो नास्य दुःखं कदाचन ।
यत्सुषुप्तौ निर्विषय आत्मानन्दोऽनुभूयते ।
श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं च जाग्रति ॥ १०९ ॥
अर्थ:-इसलिये आत्मा सदा आनन्दस्वरूप है, इसमें दुःख कभी नहीं है। तभी सुषुप्ति में विषयों का अभाव रहते हुए भी आत्मानन्द का अनुभव होता है। इस विषयमें श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य (इतिहास) और अनुमान-प्रमाण जागृत (मौजूद) हैं।
विवेकचूड़ामणि का यह श्लोक आत्मस्वरूप के सच्चे स्वरूप की गहन व्याख्या करता है। आचार्य शंकर यह स्पष्ट कर रहे हैं कि आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में शुद्ध चैतन्य और सत्यानन्द है। उसमें कभी भी दुःख का अंश नहीं आता। संसार में जितने भी सुख-दुःख का अनुभव होता है, वे केवल मन और अहंकार के स्तर पर होते हैं, आत्मा के स्तर पर नहीं। आत्मा तो निरंतर, अजन्मा, अविनाशी और आनन्दमय है। यही कारण है कि जीव चाहे जाग्रत अवस्था में हो, स्वप्न में हो या सुषुप्ति में, उसके भीतर आत्मा का स्वरूप कभी भी नष्ट नहीं होता।
यहाँ विशेष रूप से सुषुप्ति का उदाहरण दिया गया है। जब मन, इन्द्रियाँ और बुद्धि सब सो जाते हैं, तब विषयों का अनुभव नहीं होता। न सुख का, न दुःख का, न प्रिय का, न अप्रिय का। उस समय शुद्ध आत्मानन्द का अनुभव होता है। यही कारण है कि जागने पर हर व्यक्ति कहता है – “मैं अच्छी नींद सोया था, मुझे सुख मिला।” यह सुख किसी बाह्य वस्तु से प्राप्त नहीं हुआ, न ही किसी क्रिया से; यह तो केवल आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप है जो उस अवस्था में आभासित हुआ। इस प्रकार सुषुप्ति स्वयं प्रमाण है कि आत्मा का स्वरूप नित्य आनन्द ही है।
शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए चार प्रमाण उपलब्ध हैं – श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य और अनुमान। श्रुति अर्थात् उपनिषदों का वचन। उपनिषद स्पष्ट कहते हैं कि आत्मा आनन्दस्वरूप है – “आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।” ब्रह्म और आत्मा में भेद नहीं है, और ब्रह्म ही परम आनन्द है। प्रत्यक्ष प्रमाण सुषुप्ति का अनुभव है, जहाँ प्रत्येक जीव अपने भीतर शांति और आनन्द का अनुभव करता है। ऐतिह्य अर्थात् परम्परागत अनुभूतियाँ, जैसे कि लोग अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि गहरी नींद से उठने के बाद मन प्रसन्न और तृप्त होता है। अनुमान अर्थात् तर्क से यह निष्कर्ष निकालना कि यदि बिना विषय और बिना इन्द्रिय-सुख के भी आनन्द अनुभव होता है, तो उसका स्रोत आत्मा ही है।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप कभी दुःखमय नहीं हो सकता। दुःख केवल देह, इन्द्रिय और मन की अवस्थाओं में आता है। जब मन प्रिय विषयों के साथ होता है तो सुख का अनुभव करता है, और अप्रिय विषयों से दुःख का। लेकिन ये सब अस्थायी हैं, और निरंतर बदलते रहते हैं। आत्मा इन सब परिवर्तनों से परे है, वह सदा एकरस आनन्द में स्थित है। यही कारण है कि शंकराचार्य कहते हैं – “नास्य दुःखं कदाचन।” आत्मा को कभी दुःख छू भी नहीं सकता।
यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि सुषुप्ति में अनुभव हुआ आनन्द आत्मा का पूर्ण अनुभव नहीं है, क्योंकि वहाँ अज्ञान का आवरण भी मौजूद रहता है। जीव नहीं जानता कि वह किसके आनन्द में स्थित था। वह केवल जागने पर स्मरण करता है कि सुख मिला था। लेकिन यह संकेत अवश्य देता है कि आत्मा का स्वरूप ही आनन्द है। साधक जब ध्यान, श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा अज्ञान के आवरण को हटा देता है, तब उसे वही आनन्द साक्षात् विद्यमान स्वरूप में अनुभव होता है, जो नित्यानन्द और पूर्ण है।
इस श्लोक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने वास्तविक स्वरूप को जानना चाहिए। यदि हम स्वयं को केवल शरीर और मन मानते रहेंगे, तो सुख-दुःख के चक्र से बाहर नहीं आ पाएंगे। लेकिन यदि हम यह समझ लें कि आत्मा सदा आनन्दमय है, और यह सुख बाह्य विषयों से नहीं आता बल्कि भीतर ही है, तब हमें संसार की विषमता और विपरीत परिस्थितियाँ डिगा नहीं पाएंगी। जीवन में कितनी ही कठिनाई क्यों न हो, यदि हमें यह ज्ञान है कि हमारा आत्मस्वरूप दुःखरहित है, तो हम स्थिर और प्रसन्न बने रह सकते हैं। यही वेदान्त का संदेश है।
अतः इस श्लोक का सार यही है कि आत्मा नित्य आनन्दस्वरूप है। दुःख उसका धर्म नहीं है। सुषुप्ति इसका प्रत्यक्ष अनुभव कराती है। श्रुति इसका समर्थन करती है, परम्परा इसका अनुभव बताती है, और तर्क इसका अनुमोदन करता है। इस प्रकार सभी प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि आत्मा कभी भी दुःखग्रस्त नहीं होती। दुःख केवल अज्ञानजन्य उपाधियों का परिणाम है। जो साधक इस सत्य को दृढ़ता से समझ लेता है, वही सच्चे अर्थों में आत्मानन्द का अनुभव कर सकता है और मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!