"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 110वां श्लोक"
"माया-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति-रनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा।
कार्यानुमेया सुधियैव माया यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥ ११० ॥
अर्थ:-जो अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की परा शक्ति है, वही माया है; जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है। बुद्धिमान् जन इसके कार्य से ही इसका अनुमान करते हैं।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत के सबसे गहन सिद्धांतों में से एक ‘माया’ का रहस्य प्रकट करता है। यहाँ कहा गया है कि माया को ‘अव्यक्त’ कहा जाता है, अर्थात् जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती, जिसे इन्द्रियाँ नहीं पकड़ सकतीं। यह सदा अप्रकट रहती है, परन्तु इसके प्रभाव और कार्यों से जगत में विविधता और प्रपंच अनुभव होता है। इसे ‘अनाद्यविद्या’ कहा गया है, अर्थात् इसका कोई आरम्भ नहीं है। जबसे जीव और जगत का अनुभव है, तबसे यह अज्ञान भी है। यद्यपि इसका आरम्भ नहीं है, किन्तु यह शाश्वत भी नहीं है, क्योंकि ज्ञान के प्रकाश से इसका नाश हो जाता है। यही इसकी अद्भुत विशेषता है कि यह अनादि होते हुए भी अंत्य है।
माया को ‘परमेश्वर की परा शक्ति’ कहा गया है। ब्रह्म निराकार, अकर्ता और निष्क्रिय है, वह साक्षी मात्र है। परन्तु सृष्टि के विविध प्रपंच और संचालन के लिए उसकी यह शक्ति सक्रिय होती है। जैसे सूर्य केवल प्रकाश देता है, किन्तु उस प्रकाश के कारण ही मरीचिका जैसी भ्रांति दिखती है, वैसे ही ब्रह्म के सान्निध्य से माया जगत का निर्माण करती है। इसीलिए माया को ईश्वर की अधीन शक्ति कहा गया है, जो स्वतंत्र नहीं है, बल्कि ब्रह्म की उपस्थिति से ही कार्य करती है।
माया की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता है—‘त्रिगुणात्मिका’। इसका अर्थ है कि यह सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से बनी है। यही तीन गुण सृष्टि की विविधता का मूल हैं। सत्त्व से प्रकाश, शांति और ज्ञान उत्पन्न होते हैं; रज से गति, चेष्टा, इच्छा और कर्म प्रवृत्ति आती है; और तम से अज्ञान, जड़ता और मोह उत्पन्न होता है। जब ये गुण परस्पर मिलते-जुलते हैं, तभी संसार का यह विविध रूप दिखाई देता है। वास्तव में जीव का अनुभव—सुख-दुःख, राग-द्वेष, ज्ञान-अज्ञान—सब इन्हीं गुणों की कार्यप्रणाली है।
यहाँ श्लोक कहता है कि माया ‘कार्यानुमेया’ है, अर्थात् इसे सीधे नहीं जाना जा सकता। इसे केवल इसके कार्यों से पहचाना जा सकता है। जिस प्रकार धुआँ देखकर आग का अनुमान होता है, उसी प्रकार इस जगत की उत्पत्ति और संचालन देखकर बुद्धिमान व्यक्ति माया का अनुमान करते हैं। संसार की विविधता, परिवर्तनशीलता और अनुभवों का आधार माया ही है। यदि माया न होती तो यह जगत अस्तित्व में न होता, क्योंकि ब्रह्म स्वयं निराकार और अपरिवर्तनशील है, वह किसी भी प्रकार के परिवर्तन या क्रिया में संलग्न नहीं हो सकता।
माया का स्वरूप बड़ा ही विचित्र और अगम्य है। शास्त्रों में इसे ‘अनिर्वचनीय’ कहा गया है—न यह पूर्णतः सत्य है, न ही असत्य। यदि यह पूर्णतः असत्य होती तो जगत का अनुभव कैसे होता? और यदि यह पूर्णतः सत्य होती तो ज्ञान के उदय से इसका नाश कैसे हो जाता? अतः यह न सत् है, न असत्, बल्कि ‘सदसद्विलक्षणा’ है। यही इसकी शक्ति है कि यह जीव को भ्रमित करके वास्तविक आत्मस्वरूप को ढक देती है और उसे शरीर, मन और इन्द्रियों के साथ अपनी पहचान करवा देती है।
श्लोक का सार यही है कि यह सम्पूर्ण जगत माया की उपाधि से ही उत्पन्न होता है। ब्रह्म के साक्षात् ज्ञान से माया का यह आवरण हट जाता है और तब आत्मा का नित्य, शुद्ध और मुक्त स्वरूप प्रकट होता है। बुद्धिमान जन समझते हैं कि माया के कार्य से ही उसका अनुमान किया जा सकता है, और उसका अंत केवल ब्रह्मज्ञान से ही संभव है। यही विवेकचूड़ामणि का केंद्रीय संदेश है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!