"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 111वां श्लोक"
"माया-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो। नो
साङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥
अर्थ:- वह न सत् है, न असत् है और न [ सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है, न अभिन्न है और न [ भिन्नाभिन्न] उभयरूप है; न अंगसहित है, न अंगरहित है और न [ सांगानंग] उभयात्मिका ही है; किन्तु अत्यन्त अद्भुत और अनिर्वचनीय रूपा (जो कही न जा सके ऐसी) है।
यह श्लोक माया के स्वरूप का गहन विवेचन करता है और उसके अनिर्वचनीय चरित्र को प्रकट करता है। शंकराचार्य यहाँ स्पष्ट करते हैं कि माया को हम किसी भी सामान्य तर्क या दार्शनिक श्रेणी में नहीं रख सकते। यह एक ऐसी सत्ता है जो न पूरी तरह वास्तविक है, न पूरी तरह अवास्तविक और न ही इन दोनों का कोई मेल। इसी कारण उपनिषदों और अद्वैत वेदांत में इसे "अनिर्वचनीया" कहा गया है। साधारण शब्दों में माया को समझना कठिन है क्योंकि यह हमारी इंद्रियों और बुद्धि के स्तर पर अनुभव होती है, किन्तु जब हम उसे विवेक की दृष्टि से देखते हैं, तो पाते हैं कि उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
सबसे पहले, शंकराचार्य कहते हैं कि माया न सत् है, न असत् है और न ही सत-असत् दोनों का मेल है। यदि इसे सत् माना जाए तो सत् का अर्थ है – वह जो कभी नष्ट नहीं होता, जो शाश्वत और अविनाशी है। ब्रह्म ही ऐसा तत्व है जो वास्तव में सत् है। माया तो परिवर्तनशील है, उसका कार्य है निरंतर जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय करना। अतः उसे सत् नहीं कहा जा सकता। यदि उसे असत् कहा जाए, तो असत् का अर्थ है – जिसका कोई अस्तित्व ही न हो, जैसे आकाश में सींग। किन्तु माया को हम अनुभव करते हैं, जगत की रूपरेखा और विविधता उसके कारण ही दिखती है, इसलिए उसे असत् भी नहीं कह सकते। और यदि कोई कहे कि माया सत्-असत् दोनों है, तो यह भी तर्कसम्मत नहीं होगा, क्योंकि परस्पर विरोधी धर्म एक ही वस्तु में स्थायी रूप से नहीं रह सकते। अतः माया इन तीनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आती।
दूसरा बिंदु यह है कि माया न भिन्न है, न अभिन्न है और न ही भिन्नाभिन्न। यदि माया को ब्रह्म से भिन्न मान लें, तो अद्वैत सिद्धांत टूट जाएगा, क्योंकि तब ब्रह्म के अतिरिक्त एक और सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी। यदि इसे अभिन्न मान लें, तो ब्रह्म का स्वरूप ही विकारी और परिवर्तनशील मानना पड़ेगा, जो कि शुद्ध चेतन और निर्विकार ब्रह्म के सिद्धांत के विरुद्ध है। और यदि कहें कि माया भिन्नाभिन्न है, तो यह विरोधाभास उत्पन्न करता है, क्योंकि किसी वस्तु का एक ही समय भिन्न और अभिन्न होना संभव नहीं। इस प्रकार माया इस दृष्टि से भी किसी निश्चित परिभाषा में नहीं आ सकती।
तीसरा पहलू यह है कि माया न सांग है, न अनंग है और न ही सांग-अनंग दोनों का मेल है। सांग का अर्थ है – अंगों सहित। यदि माया सांग है तो उसके निश्चित अंग-प्रत्यंग होने चाहिए, किन्तु उसका कोई ठोस या निश्चित रूप नहीं है। यदि माया को अनंग कहें तो वह ब्रह्म के समान निराकार और निर्गुण हो जाएगी, जबकि उसका कार्य है विविध रूपों में जगत को प्रकट करना। और यदि इसे सांग-अनंग दोनों कहें, तो फिर वही तर्कगत असंगति सामने आती है। इस प्रकार माया को सांग, अनंग या दोनों में से किसी भी रूप में नहीं रखा जा सकता।
इन सभी अस्वीकृतियों के बाद शंकराचार्य यह निष्कर्ष निकालते हैं कि माया का स्वरूप महाद्भुत और अनिर्वचनीय है। यह न तो तर्क से समझी जा सकती है, न ही शब्दों में बाँधी जा सकती है। इसका स्वरूप अद्भुत है क्योंकि यह ब्रह्म से शक्ति प्राप्त कर जगत की रचना करती है और हमें वास्तविक जैसा अनुभव कराती है, जबकि उसका स्वयं का कोई स्वतंत्र सत्य नहीं है। जैसे स्वप्न में देखे गए दृश्य जागने पर मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं, वैसे ही माया से उत्पन्न यह जगत भी ब्रह्म के साक्षात्कार होने पर मिथ्या सिद्ध हो जाता है।
शंकराचार्य का उद्देश्य यहाँ यह नहीं है कि साधक माया के तर्क में उलझ जाए और उसकी श्रेणीबद्ध परिभाषा खोजता रहे। उनका संदेश यह है कि माया के विषय में जितना तर्क किया जाएगा, उतना ही साधक भ्रमित होगा, क्योंकि वह कभी भी पूरी तरह किसी श्रेणी में नहीं आएगी। इसलिए उपनिषद कहते हैं कि यह "अनिर्वचनीया" है—इसे न पूरी तरह कहा जा सकता है, न ही तर्क से पकड़ जा सकता है। इसका सच्चा बोध केवल तब होता है जब साधक अपने भीतर ब्रह्म का अनुभव करता है। उस समय यह जगत, यह माया, सब कुछ स्वप्न के समान प्रतीत होने लगता है।
अतः यह श्लोक माया के बारे में साधक को यह समझाने का प्रयास करता है कि माया के स्वरूप पर अधिक विवाद या तर्क न करे, बल्कि यह स्वीकार करे कि माया एक अनिर्वचनीय शक्ति है, जो ब्रह्म के बिना कोई अस्तित्व नहीं रखती। उसका काम केवल आभासी जगत को प्रस्तुत करना है। जब तक अज्ञान है, तब तक माया वास्तविक प्रतीत होती है। लेकिन ज्ञान प्राप्त होते ही यह समझ में आता है कि न तो माया की कोई स्वतंत्र सत्ता है और न ही इस जगत की। केवल ब्रह्म ही शाश्वत सत्य है। यही विवेक की दृष्टि है जो साधक को बंधन से मुक्त कर आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!