"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 112वां श्लोक"
"माया-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
शुद्धाद्वयब्रह्मविबोधनाश्या सर्पभ्रमो रज्जुविवेकतो यथा।
रजस्तमः सत्त्वमिति प्रसिद्धा गुणास्तदीयाः प्रथितैः स्वकार्यैः ॥ ११२ ॥
अर्थ:-रज्जु के ज्ञान से सर्प-भ्रम के समान वह अद्वितीय शुद्ध ब्रह्म के ज्ञान से ही नष्ट होने वाली है। अपने-अपने प्रसिद्ध कार्यों के कारण सत्त्व, रज और तम-ये उसके तीन गुण प्रसिद्ध हैं।
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की गहन सच्चाई को प्रकट करता है। शंकराचार्य यहाँ माया और उसके त्रिगुणात्मक स्वरूप की चर्चा करते हुए स्पष्ट करते हैं कि संसार का अनुभव और उसकी विविधता केवल ज्ञानाभाव से उत्पन्न भ्रांति है। जैसे अंधकार में पड़ी रज्जु (रस्सी) को अज्ञानवश सर्प समझ लिया जाता है, वैसे ही शुद्ध अद्वैत ब्रह्म पर अज्ञान के कारण यह जगत और व्यक्तित्व की भिन्नता प्रकट होती है। जब तक रज्जु का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक सर्प का भ्रम बना रहता है; लेकिन एक बार जब दीपक की रोशनी से यह ज्ञात हो जाता है कि वह रज्जु ही है, तो सर्प का भ्रांत ज्ञान तुरंत नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार, जब ब्रह्म का साक्षात्कारी ज्ञान होता है, तो समस्त संसार और भेद-भाव की भ्रांति का अंत हो जाता है।
माया की विशेषता यह है कि यह स्वयं अनादि और अनिर्वचनीय होते हुए भी ब्रह्मज्ञान से पूरी तरह समाप्त हो जाती है। शास्त्रों में इसे अविद्या, अज्ञान, अनादि शक्ति और परमेश्वर की माया के रूप में कहा गया है। यह माया त्रिगुणात्मिका है—सत्त्व, रज और तमस से युक्त। यही तीन गुण संसार के समस्त कार्यों और भेदों का कारण बनते हैं। सत्त्व से प्रकाश, ज्ञान, शांति और पवित्रता की प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। रजोगुण से चंचलता, अस्थिरता, वासनाएँ, इच्छाएँ और कर्म की प्रवृत्तियाँ आती हैं। तमोगुण से अज्ञान, आलस्य, प्रमाद और नकारात्मक प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं। संसार का समस्त व्यापार इन्हीं तीन गुणों की परस्पर क्रियाओं से चलता है।
मनुष्य की अवस्था भी इन्हीं गुणों से प्रभावित रहती है। जब सत्त्व प्रमुख होता है तो विवेक, शांति, भक्ति और ध्यान की प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं। रजोगुण की प्रधानता होने पर व्यक्ति कर्मशील, महत्वाकांक्षी, इच्छाशक्ति से प्रेरित और बाह्य जगत् में अधिक उलझा रहता है। तमोगुण की वृद्धि से आलस्य, अवसाद, मोह और अज्ञान बढ़ता है। इस प्रकार माया अपनी शक्ति से जीव को संसार के चक्र में बांधे रखती है। लेकिन यह सब केवल भ्रांति मात्र है, क्योंकि वास्तव में आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वरूप है।
वेदांत कहता है कि इस भ्रांति का निवारण केवल ब्रह्मज्ञान से ही संभव है। कर्म, उपासना या अन्य साधन केवल मन को शुद्ध करने के साधन हैं; अंतिम सत्य का साक्षात्कार तो केवल ज्ञान से ही होता है। जैसे अंधकार में किया हुआ कोई भी प्रयास रज्जु को सर्प मानने की भ्रांति को नहीं मिटा सकता, वैसे ही ब्रह्म के वास्तविक ज्ञान के बिना संसार का भ्रम मिट नहीं सकता। केवल दीपक का प्रकाश ही रज्जु का सत्य स्वरूप दिखाता है। उसी प्रकार केवल आत्मसाक्षात्कार ही जीव को उसकी वास्तविकता का बोध कराता है और माया के बंधन से मुक्त करता है।
यहाँ एक और सूक्ष्म बिंदु समझने योग्य है कि सर्प का भ्रम वास्तव में कभी था ही नहीं; वह केवल मन की कल्पना थी। इसी प्रकार संसार का द्वैत और भेद-भाव भी वास्तव में नहीं है, केवल माया की कल्पना मात्र है। वास्तविकता में केवल अद्वैत ब्रह्म ही सत्य है। जब तक इस सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता, तब तक जीव रज्जु पर सर्प देखने वाले की तरह भय, सुख-दुःख, जन्म-मरण और मोह में बंधा रहता है।
अतः शंकराचार्य यह शिक्षा देते हैं कि साधक को विवेक के द्वारा त्रिगुणात्मक माया के कार्यों को पहचानना चाहिए और यह समझना चाहिए कि वे वास्तविक नहीं, केवल भ्रांति हैं। जैसे रज्जु का ज्ञान होते ही सर्प का भ्रांत ज्ञान मिट जाता है, वैसे ही ब्रह्म का शुद्ध अद्वैत ज्ञान प्राप्त होने पर माया का बंधन समाप्त हो जाता है और आत्मा अपनी शुद्ध, अखंड और आनंदस्वरूप स्थिति में स्थित हो जाती है। यही मुक्ति का सार है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!