"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 113वां श्लोक"
"रजोगुण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विक्षेपशक्ती रजसः क्रियात्मिका यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।
रागादयोऽस्याः प्रभवन्ति नित्यं दुःखादयो ये मनसोविकाराः ॥ ११३ ॥
अर्थ:-क्रियारूपा विक्षेपशक्ति रजोगुण की है जिससे सनातन काल से समस्त क्रियाएँ होती आयी हैं और जिससे रागादि और दुःखादि, जो मनके विकार हैं, सदा उत्पन्न होते हैं।
यह श्लोक विवेकचूडामणि में रजोगुण की विक्षेपशक्ति का वर्णन करता है। अद्वैत वेदांत के अनुसार संसार का अनुभव केवल ब्रह्म की अज्ञानावस्था के कारण संभव होता है। यह अज्ञान (अविद्या) दो शक्तियों के रूप में कार्य करता है – आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति। आवरणशक्ति सत्य को ढक देती है, जबकि विक्षेपशक्ति असत्य का प्रक्षेपण करती है। इस श्लोक में शंकराचार्य जी बता रहे हैं कि विक्षेपशक्ति का संबंध रजोगुण से है। रजोगुण की स्वभावगत प्रवृत्ति है गति, क्रिया और चंचलता। यही कारण है कि जीव निरंतर कर्मों में प्रवृत्त होता रहता है और उसी से अनेक मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं।
रजोगुण की यह शक्ति अनादि काल से कार्य कर रही है। जब तक जीव अविद्या के बंधन में है, तब तक रजोगुण उसकी चेतना को बाहर की ओर प्रवृत्त करता है। यह शक्ति उसे स्थिर और शांत नहीं रहने देती। मनुष्य का मन क्षणभर भी एक जगह टिकता नहीं, क्योंकि रजोगुण की विक्षेपशक्ति उसे इधर-उधर खींचती रहती है। यही कारण है कि साधक ध्यान या आत्मचिंतन में बैठता है तो मन बार-बार बाहरी विषयों की ओर भागता है। इस प्रकार यह शक्ति आत्मज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।
इस विक्षेपशक्ति से रागादि उत्पन्न होते हैं। रजोगुण की प्रवृत्ति इच्छा और आसक्ति को जन्म देती है। मनुष्य को किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति आकर्षण होता है और वह राग कहलाता है। इसके विपरीत, अप्रिय वस्तुओं से द्वेष उत्पन्न होता है। जब इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं तो क्रोध, निराशा और हताशा पैदा होती है। यही नहीं, रजोगुण के कारण मनुष्य निरंतर कर्म में लिप्त होकर थकान, अशांति और असंतोष अनुभव करता है। इन सबका परिणाम है – दुःख, जो मन के विकारों का सबसे गहन रूप है।
शंकराचार्य जी यहाँ यह भी इंगित करते हैं कि ये दुःख और विकार केवल अस्थायी या संयोगजन्य नहीं हैं, बल्कि निरंतर उत्पन्न होते रहते हैं। जब तक मनुष्य रजोगुण के वशीभूत है, तब तक राग-द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, मोह, चिंता और भय जैसे मानसिक विकार उससे अलग नहीं हो सकते। यह सब विक्षेपशक्ति की स्वाभाविक उपज है। यही शक्ति जीव को संसार के चक्र में घुमाती रहती है और उसे पुनः पुनः जन्म-मरण के बंधन में डाल देती है।
साधक के लिए यह समझना आवश्यक है कि विक्षेपशक्ति को वश में किए बिना आत्मज्ञान संभव नहीं है। इसके लिए शास्त्र और गुरु की शरण लेना, सत्संग करना, शम-दमादि साधन चतुष्टय का अभ्यास करना, तथा ध्यान और वैराग्य से मन को शांत करना अत्यंत आवश्यक है। जब मन शांति को प्राप्त करता है और रजोगुण की चंचलता कम होती है, तभी विवेक दृढ़ होता है और आत्मा का प्रकाश प्रकट होता है।
अतः इस श्लोक का गूढ़ अर्थ यह है कि संसार की सभी प्रवृत्तियाँ और उनसे उत्पन्न राग-द्वेषादि विकार वास्तव में रजोगुण की विक्षेपशक्ति से ही उत्पन्न होते हैं। यदि साधक इस सत्य को समझकर रजोगुण की गति को नियंत्रित कर ले, तो मन की विक्षिप्तता मिट जाती है और आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव हो जाती है। यही आत्मज्ञान जीव को सभी दुःखों से मुक्त कर देता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!