"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 114वां श्लोक"
"रजोगुण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
कामः क्रोधो लोभदम्भाद्यसूया-हङ्कारेष्र्ष्यामत्सराद्यास्तु घोराः ।
धर्मा एते राजसाः पुम्प्रवृत्ति-र्यस्मादेषा तद्रजो बन्धहेतुः ॥ ११४॥
अर्थ:-काम, क्रोध, लोभ, दम्भ, असूया (गुणों में दोष ढूँढ़ना), अभिमान, ईर्ष्या और मत्सर-ये घोर धर्म रजोगुण के ही हैं। अतः जिसके कारण जीव कर्मों में प्रवृत्त होता है वह रजोगुण ही उसके बन्धन का हेतु है।
काम, क्रोध, लोभ, दम्भ, असूया, अभिमान, ईर्ष्या और मत्सर—ये सभी मनुष्य के भीतर छिपे हुए वे दोष हैं जो रजोगुण की उपज हैं। शंकराचार्य यहाँ स्पष्ट कर रहे हैं कि ये सब विकार उस रजोगुण के धर्म अर्थात् उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं। रजोगुण की विशेषता है निरंतर प्रवृत्ति, असंतोष और अशांति। यह गुण जीव को कर्मों में उलझाए रखता है और उसे बार-बार संसार के जाल में खींच लाता है। काम से इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा पूरी न होने पर क्रोध आता है, क्रोध से विवेक नष्ट होता है और विवेक के नाश से जीव पतन की ओर बढ़ता है। इसी प्रकार लोभ से मनुष्य संतुष्ट नहीं हो पाता और अधिक से अधिक पाने की लालसा उसे निरंतर अशांत रखती है।
दम्भ और अहंकार ऐसे दोष हैं जो भीतर की अशुद्धियों को और प्रबल करते हैं। दम्भ का अर्थ है स्वयं को बड़ा दिखाने का प्रयास और असत्य आचरण। जब मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को न पहचानकर केवल बाहरी प्रतिष्ठा में लिप्त हो जाता है तो दम्भ उत्पन्न होता है। अहंकार उससे भी गहरा है, क्योंकि यह मनुष्य को "मैं ही करता हूँ", "मैं ही श्रेष्ठ हूँ" की भावना में फंसा देता है। असूया, ईर्ष्या और मत्सर मनुष्य को दूसरों की अच्छाई या सफलता सहन नहीं करने देते। ये भाव मन को दूषित कर देते हैं और आत्मिक प्रगति की राह को पूरी तरह अवरुद्ध कर देते हैं।
इन सब विकारों की जड़ रजोगुण है। रजोगुण की प्रवृत्ति गति और परिवर्तन की ओर होती है, लेकिन जब यह अज्ञान से संचालित होता है तो गति का स्वरूप मोह, वासनाओं और आसक्ति की ओर मुड़ जाता है। यही कारण है कि जीव बार-बार कर्म में प्रवृत्त होकर बंधन का शिकार होता है। शंकराचार्य का कहना है कि जब तक मनुष्य रजोगुण की इस शक्ति से मुक्त नहीं होता, तब तक उसे वास्तविक शांति और आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि रजोगुण अपने आप में बुरा नहीं है, क्योंकि वही हमें आवश्यक कार्य करने की शक्ति भी देता है। किन्तु जब यह विवेक और सत्त्वगुण के नियंत्रण से बाहर हो जाता है, तभी यह बंधन का कारण बनता है। उदाहरण के लिए, यदि काम को आत्मानुशासन के साथ ईश्वर-प्राप्ति की आकांक्षा में बदल दिया जाए तो वह साधन बन सकता है, लेकिन जब वही सांसारिक इच्छाओं में डूब जाता है तो बंधन का कारण बनता है।
आध्यात्मिक साधना का उद्देश्य इन रजोगुणजन्य दोषों को पहचानना और धीरे-धीरे उनका परित्याग करना है। जब साधक विवेक के द्वारा समझता है कि काम, क्रोध, लोभ आदि उसकी आत्मा के नहीं, केवल गुणों के धर्म हैं, तो वह उनसे असंग रहने का अभ्यास करता है। भगवद्गीता में भी भगवान कहते हैं कि रजोगुण से लोभ और कर्म की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, और यही पुनर्जन्म का कारण है। इसलिए विवेकी साधक इनसे सावधान रहता है और सत्त्वगुण की ओर उन्मुख होकर अंततः गुणातीत स्थिति में प्रवेश करता है।
अतः इस श्लोक का सार यह है कि मनुष्य के भीतर जो भी अशांति, द्वेष, असंतोष और बंधन है, उसकी जड़ रजोगुण है। काम, क्रोध और लोभ जैसे विकार केवल मन को बाँधते हैं और उसे आत्मज्ञान से दूर रखते हैं। साधना का मार्ग इन्हें पार करके आत्मा की शुद्ध और शाश्वत प्रकृति को पहचानना है। जब साधक इन घोर धर्मों का अतिक्रमण कर लेता है, तब वह वास्तविक स्वतंत्रता और आत्मानुभूति को प्राप्त करता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!