"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 115वां श्लोक"
"तमोगुण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
एषावृतिर्नाम तमोगुणस्य शक्तिर्यया वस्त्ववभासते ऽन्यथा ।
सैषा निदानं पुरुषस्य संसृते-र्विक्षेपशक्तेः प्रसरस्य हेतुः ॥ ११५ ॥
अर्थ:-जिसके कारण वस्तु कुछ-की-कुछ प्रतीत होने लगती है वह तमोगुण की आवरण शक्ति है। यही पुरुष के (जन्म-मरण-रूप) संसार का आदि-कारण है और यही विक्षेप शक्ति के प्रसार का भी हेतु है।
यह श्लोक विवेकचूडामणि में अद्वैत वेदांत के अत्यंत गूढ़ सिद्धांत की ओर संकेत करता है। यहाँ शंकराचार्य तमोगुण की उस शक्ति का वर्णन करते हैं जिसे "आवरण शक्ति" कहा जाता है। आवरण शक्ति का कार्य है वस्तु के वास्तविक स्वरूप को ढँक देना और उसे वैसे न दिखाना जैसा वह है, बल्कि विपरीत रूप में प्रकट करना। जैसे रात्रि के अंधकार में रस्सी के स्थान पर सर्प का भ्रम हो जाता है, उसी प्रकार आवरण शक्ति ब्रह्म-स्वरूप आत्मा को ढँक देती है और हमें संसार की विविधता, जीव, जड़, सुख-दुःख आदि का अनुभव कराती है।
तमोगुण का यह आवरण ही संसार का मूल कारण है। जब तक आत्मा का स्वरूप आवृत रहता है, तब तक जीव को अपनी वास्तविक पहचान ज्ञात नहीं होती। अज्ञान का यही आवरण उसे देहाभिमान, अहंकार, राग-द्वेष और अनंत कर्मों के जाल में उलझा देता है। यही कारण है कि जीव अनादि काल से जन्म और मरण के चक्र में घूमता रहता है। इस प्रकार आवरण शक्ति ही संसार रूपी बंधन का बीज है, क्योंकि वही वास्तविकता को छिपाकर भ्रामक अनुभव उत्पन्न करती है।
इसके बाद शंकराचार्य बताते हैं कि यही आवरण शक्ति विक्षेप शक्ति की जड़ है। विक्षेप शक्ति रजोगुण की क्रियात्मक प्रवृत्ति है जो बाहरी संसार को प्रकट करती है। किंतु यदि आवरण शक्ति ही न हो, तो विक्षेप शक्ति का प्रभाव भी नहीं पड़ सकता। जैसे आँख पर पट्टी बाँध दी जाए और उसके ऊपर कोई रंगीन चित्र दिखाया जाए, तो पट्टी के रहते हुए चित्र का भान ही नहीं होगा। इसी प्रकार पहले आत्मा का स्वरूप आवृत होना आवश्यक है, तभी संसार के विविध विक्षेप संभव होते हैं। यदि आत्मा का ज्ञान हो जाए, तो न तो अज्ञान रह सकता है और न ही संसार की भ्रांति।
यहाँ यह समझना आवश्यक है कि आवरण शक्ति केवल "अज्ञान" नहीं है, बल्कि वह शक्ति है जो हमें वस्तु को "अन्यथा" दिखाती है। उदाहरणार्थ, सूर्य प्रकट है, परंतु बादल उसे ढँक देते हैं। तब हमें प्रतीत होता है कि आकाश में प्रकाश नहीं है, यद्यपि सत्य यह है कि सूर्य वहीं विद्यमान है। इसी तरह आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वरूप से सदा प्रकट है, परंतु तमोगुण की आवरण शक्ति उसे ढँक देती है और जीव को यह प्रतीति होती है कि वह सीमित, नश्वर और दुखी है।
वेदांत कहता है कि जब तक यह आवरण शक्ति नष्ट नहीं होती, तब तक कोई भी साधना, चाहे वह कर्म हो, भक्ति हो या उपासना, पूर्ण फल नहीं दे सकती। क्योंकि आवरण शक्ति ही मूल अज्ञान है, और जब तक अज्ञान का नाश नहीं होता, तब तक आत्मा का साक्षात्कार असंभव है। इसलिए शास्त्र, गुरु और साधना का उद्देश्य है इस आवरण शक्ति को हटाना। जब यह हटती है, तब विक्षेप शक्ति भी स्वतः शांत हो जाती है और आत्मा का स्वरूप स्वयं प्रकट हो जाता है।
अतः इस श्लोक का सार यह है कि तमोगुण की आवरण शक्ति ही संसार की जड़ है। यह वास्तविकता को ढँककर जीव को अन्यथा अनुभव कराती है और जन्म-मरण का कारण बनती है। यही विक्षेप शक्ति के प्रसार का भी मूल कारण है। जब साधक विवेक, वैराग्य और आत्मज्ञान से इस आवरण को भेदता है, तभी उसे अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध होता है और वही मुक्ति की अंतिम अवस्था है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!