"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 116वां श्लोक"
"तमोगुण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
प्रज्ञावानपि पण्डितोऽपि चतुरोऽप्यत्यन्तसूक्ष्मार्थदृक् व्यालीढस्तमसा न वेत्ति बहुधा सम्बोधितोऽपि स्फुटम् ।
भ्रान्त्यारोपितमेव साधु कलयत्यालम्बते तद्गुणान् हन्तासौ प्रबला दुरन्ततमसः शक्तिर्महत्यावृतिः ॥ ११६ ॥
अर्थ:-तम से ग्रस्त हुआ पुरुष अति बुद्धिमान्, विद्वान्, चतुर और शास्त्र के अत्यन्त सूक्ष्म अर्थों को देखने वाला भी हो तो भी वह नाना प्रकार समझाने से भी अच्छी तरह नहीं समझता; वह भ्रम से आरोपित किये हुए पदार्थों को ही सत्य समझता है और उन्हीं के गुणोंका आश्रय लेता है। अहो ! दुरन्त तमोगुण की यह महती आवरण-शक्ति बड़ी ही प्रबल है।
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक मनुष्य की स्थिति का अत्यंत गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। यहाँ यह कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति अत्यंत प्रज्ञावान हो, विद्वान हो, चतुर हो और शास्त्रों के अत्यंत सूक्ष्मार्थ को समझने की क्षमता रखता हो, तब भी यदि वह तमोगुण की आवरण शक्ति से ग्रस्त है, तो वह सत्य को नहीं पहचान सकता। उसे बार-बार समझाया जाए, स्पष्ट रूप से बताया जाए, तब भी वह वास्तविकता को ग्रहण नहीं कर पाता। यह स्थिति अत्यंत आश्चर्यजनक और दयनीय है कि ज्ञान सामने होते हुए भी अज्ञान का घना आवरण सत्य की पहचान करने नहीं देता। यही तमोगुण की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह विवेक की दृष्टि को ढककर असत्य को सत्य के रूप में प्रस्तुत कर देता है।
शंकराचार्य यहाँ एक गहरी बात समझाते हैं। वे कहते हैं कि जब भ्रम किसी वस्तु पर आरोपित हो जाता है, तो व्यक्ति उसी भ्रांति को वास्तविक मानकर उसके गुणों का अनुभव करने लगता है। जैसे रस्सी पर सर्प का भ्रम हो जाए, तो व्यक्ति रस्सी में सर्प के गुण देखने लगता है। भय, विष का डर, जीवन का संकट – ये सब अनुभव वास्तविक रस्सी पर नहीं, बल्कि भ्रांति से आरोपित सर्प पर आधारित होते हैं। इसी प्रकार आत्मा, जो नित्य, शुद्ध और मुक्त है, उस पर जीव शरीर, मन और इंद्रियों का आरोपण कर देता है और उनके गुणों को अपना मान लेता है। शरीर में जरा-मरण है, मन में सुख-दुःख हैं, इंद्रियों में वासनाएँ हैं – इन सबको आत्मा का स्वभाव मान लेना ही अज्ञान का परिणाम है।
तमोगुण की आवरण शक्ति केवल साधारण लोगों तक सीमित नहीं है। यह बुद्धिमानों और शास्त्रपारंगत पंडितों को भी अपने वश में कर सकती है। यही कारण है कि कई बार हम देखते हैं कि बड़े-बड़े विद्वान भी वास्तविक आत्मसत्य को नहीं समझ पाते और केवल शास्त्रार्थ या तर्क के स्तर पर उलझे रहते हैं। ज्ञान का बौद्धिक स्वरूप प्राप्त हो जाने के बाद भी यदि आत्मानुभूति नहीं हुई, तो आवरण शक्ति अपने स्थान पर बनी रहती है। वह शक्ति इतनी प्रबल है कि ज्ञान का प्रकाश सामने होते हुए भी अज्ञान का अंधकार बना रहता है।
इस श्लोक में प्रयुक्त "हन्त" और "आह" जैसे विस्मयादिबोधक शब्द यह सूचित करते हैं कि शंकराचार्य स्वयं भी इस शक्ति की प्रबलता पर आश्चर्य करते हैं। जीव का वास्तविक स्वरूप साक्षात् आत्मा है, जो नित्य, अविनाशी और ब्रह्मस्वरूप है। परंतु जीव उसी को शरीर, मन और इंद्रियों तक सीमित समझकर दुख, भय और बंधन का अनुभव करता है। यह विरोधाभास केवल आवरण शक्ति से उत्पन्न होता है। यही जीव को संसार के चक्र में बाँधती है और यही उसे बार-बार जन्म और मृत्यु का अनुभव कराती है।
इस आवरण शक्ति का निवारण केवल बौद्धिक ज्ञान से संभव नहीं है। शास्त्रों का अध्ययन, तर्क, वाद-विवाद – ये सब केवल मार्गदर्शन कर सकते हैं, परंतु आवरण शक्ति को हटाने का कार्य साधना, गुरु के उपदेश, आत्मचिंतन, ध्यान और वैराग्य के द्वारा ही संभव है। जब साधक विवेक और वैराग्य के आधार पर जीवन जीता है और निरंतर आत्मस्वरूप में स्थित होने का अभ्यास करता है, तभी धीरे-धीरे यह आवरण शक्ति हटती है।
अतः शंकराचार्य इस श्लोक के माध्यम से हमें चेतावनी देते हैं कि आत्मज्ञान की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा यही आवरण शक्ति है। इसका प्रभाव अत्यंत प्रबल है और इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। यदि इसे दूर करने का प्रयास न किया जाए, तो चाहे मनुष्य कितना भी विद्वान क्यों न हो, वह सत्य को पहचान नहीं पाएगा। परंतु जब यह आवरण शक्ति हट जाती है, तब आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है और वही मोक्ष का मार्ग है। यही वेदान्त का परम संदेश है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!