"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 117वां श्लोक"
"तमोगुण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अभावना वा विपरीतभावना-सम्भावना विप्रतिपत्तिरस्याः ।
संसर्गयुक्तं न विमुञ्चति ध्रुवं विक्षेपशक्तिः क्षपयत्यजस्त्रम् ॥ ११७॥
अर्थ:-इस आवरणशक्ति के संसर्ग से युक्त पुरुष को अभावना, विपरीत भावना, असम्भावना और विप्रतिपत्ति- ये तमोगुण की शक्तियाँ नहीं छोड़तों और विक्षेप शक्ति भी उसे निरन्तर डावांडोल ही रखती है।
आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत गहन और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक सत्य को प्रकट करता है। श्लोक में कहा गया है कि जब पुरुष (जीव) आवरणशक्ति के संसर्ग से युक्त हो जाता है, तब उसके भीतर चार प्रकार की भ्रांतियाँ दृढ़ता से जमी रहती हैं—अभावना, विपरीतभावना, असम्भावना और विप्रतिपत्ति। इन चारों के कारण मनुष्य सत्य को ग्रहण नहीं कर पाता। वह चाहे जितना भी सुन ले, पढ़ ले या किसी गुरु से उपदेश पा ले, उसके भीतर का अज्ञान इन शक्तियों के कारण बना ही रहता है। यही नहीं, विक्षेपशक्ति अर्थात् रजोगुण का प्रभाव भी उस पर निरंतर कार्य करता है और उसे स्थिर होने नहीं देता। इस प्रकार मनुष्य निरंतर डावांडोल अवस्था में जीवन व्यतीत करता रहता है और आत्मज्ञान से वंचित रह जाता है।
अभावना का अर्थ है—सत्य की संभावना या अस्तित्व का अभाव मान लेना। जब जीव को यह शिक्षा दी जाती है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और वही सबका आधार है, तब वह इसे स्वीकार ही नहीं कर पाता। उसे लगता है कि ऐसा कोई सत्य हो ही नहीं सकता। उसका बुद्धि और मन विषय-भोग में इतने लिप्त रहते हैं कि अदृश्य, निराकार, अनंत और शुद्ध ब्रह्म की सत्ता उसके लिए कल्पना मात्र प्रतीत होती है। यही अभावना है, जो अज्ञान का सबसे गहरा रूप है।
विपरीतभावना का अर्थ है—सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मान लेना। उदाहरणस्वरूप, मनुष्य इस शरीर, इन्द्रिय और मन को ही "मैं" मान लेता है और शाश्वत आत्मा को नकार देता है। संसार के क्षणभंगुर सुखों को स्थायी और वास्तविक मानता है, जबकि आत्मा की नित्यता को मिथ्या समझता है। यही विपरीत दृष्टिकोण उसे संसार में बाँधकर रखता है।
असम्भावना का तात्पर्य है—सत्य के बारे में शंका या असंभवता का अनुभव करना। शास्त्र और गुरु कहें कि आत्मज्ञान से जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो सकता है, परंतु जीव यह मान ही नहीं पाता कि ऐसा संभव है। उसे लगता है कि जन्म-मरण, सुख-दुःख और कर्म का चक्र शाश्वत है और उससे मुक्ति मिलना असम्भव है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में आत्मज्ञान एक अव्यावहारिक या असम्भव बात प्रतीत होती है।
विप्रतिपत्ति का अर्थ है—सत्य को सुनने और समझने के बाद भी गलत ढंग से ग्रहण करना। जैसे कि शास्त्र कहते हैं कि "तुम आत्मा हो, नश्वर शरीर नहीं", परंतु जीव इसे इस प्रकार ग्रहण करता है कि "शायद मैं आत्मा और शरीर दोनों हूँ" या "मैं केवल शरीर ही हूँ, आत्मा जैसी कोई सत्ता अलग नहीं है"। इस प्रकार वह सत्य के ज्ञान में भी भ्रमित होकर विपरीत निष्कर्ष पर पहुँच जाता है।
इन चारों भ्रांतियों की जड़ आवरणशक्ति है, जो तमोगुण का प्रभाव है। परंतु इसके साथ-साथ विक्षेपशक्ति, जो रजोगुण का कार्य है, भी मनुष्य को निरंतर अस्थिर बनाए रखती है। कभी उसे राग, कभी द्वेष, कभी क्रोध, कभी लोभ की ओर धकेल देती है। वह एक क्षण के लिए भी आत्मचिंतन की स्थिर अवस्था में नहीं ठहर पाता। परिणामस्वरूप, न तो वह सत्य की खोज कर पाता है और न ही आत्मा की शांति का अनुभव।
इस श्लोक का सार यह है कि जब तक जीव अज्ञान की इन शक्तियों से मुक्त नहीं होता, तब तक उसे आत्मज्ञान का अनुभव नहीं हो सकता। गुरु की कृपा, शास्त्रों का अध्ययन, और निरंतर साधना ही इन भ्रांतियों को हटाने का उपाय है। आवरण और विक्षेप शक्तियाँ तभी नष्ट होती हैं जब साधक विवेक, वैराग्य और भक्ति से युक्त होकर आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर होता है। यही मोक्ष का मार्ग है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!