"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 118वां श्लोक"
"तमोगुण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अज्ञानमालस्यजडत्वनिद्रा-प्रमादमूढत्वमुखास्तमोगुणाः
एतैः प्रयुक्तो न हि वेत्ति किञ्चि-न्निद्रालुवत्स्तम्भवदेव तिष्ठति ॥ ११८ ॥
अर्थ:-अज्ञान, आलस्य, जडता, निद्रा, प्रमाद, मूढता आदि तम के गुण हैं। इनसे युक्त हुआ पुरुष कुछ नहीं समझता; वह निद्रालु या स्तम्भ के समान [जडवत्] रहता है।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का अत्यंत गूढ़ और व्यावहारिक सत्य उद्घाटित करता है। यहाँ आचार्य शंकर तमोगुण के विविध लक्षणों और उसके प्रभाव का स्पष्ट चित्रण करते हैं। श्लोक में कहा गया है कि अज्ञान, आलस्य, जड़ता, निद्रा, प्रमाद और मूढ़ता—ये सभी तमोगुण की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब कोई व्यक्ति इनसे आच्छादित हो जाता है, तब वह वस्तुस्थिति को समझने में असमर्थ हो जाता है। उसका जीवन निष्क्रियता, जड़ता और अचेतनता से भर जाता है। वह न तो आत्मबोध की दिशा में बढ़ पाता है और न ही अपने सांसारिक जीवन में किसी प्रकार की सार्थक जागरूकता ला पाता है।
तमोगुण की पहली और प्रमुख अभिव्यक्ति अज्ञान है। अज्ञान का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान का अभाव नहीं, बल्कि वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मा और ब्रह्म के ज्ञान का अभाव है। जब मनुष्य यह नहीं जान पाता कि उसका वास्तविक स्वरूप शुद्ध, चैतन्य और आनंदमय आत्मा है, तब वह देह और इंद्रियों को ही आत्मा मानकर उसी से चिपका रहता है। यही अज्ञान संसार के चक्र का मूल कारण है। अज्ञान से ग्रसित व्यक्ति भौतिक पदार्थों और सुखों को ही परम लक्ष्य समझ लेता है और इस प्रकार निरंतर बंधन में फँसा रहता है।
आलस्य और जड़ता भी तमोगुण के प्रमुख अंग हैं। आलस्य का अर्थ है प्रयास करने की इच्छा का अभाव। व्यक्ति के भीतर क्षमता होते हुए भी वह कुछ करने को उत्साहित नहीं होता। जड़ता का अर्थ है विचार और विवेक का अभाव, जिसके कारण व्यक्ति वस्तुओं का यथार्थ स्वरूप नहीं समझ पाता। इस स्थिति में मनुष्य अपने जीवन की दिशा और उद्देश्य के प्रति पूर्णत: उदासीन हो जाता है। वह केवल परिस्थितियों के प्रवाह में बहता रहता है, जैसे निर्जीव लकड़ी की लट्ठी नदी में बह रही हो।
निद्रा और प्रमाद भी तमोगुण की सूक्ष्म शक्तियाँ हैं। निद्रा का अर्थ केवल शारीरिक नींद नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अज्ञान की गहरी नींद है। जब व्यक्ति आत्मज्ञान से दूर रहता है, तब वह संसार के क्षणभंगुर सुख-दुख को ही सत्य मानकर उसी में खोया रहता है। प्रमाद का अर्थ है लापरवाही—धर्म, साधना और आत्मविवेक के मार्ग में आवश्यक सावधानी न बरतना। प्रमादग्रस्त व्यक्ति जानता हुआ भी अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है। इस प्रकार वह अपनी साधना को बीच में ही छोड़ देता है और संसार में पुनः उलझ जाता है।
मूढ़ता तमोगुण का अंतिम रूप है। इसमें मनुष्य इतना अंधा और असंवेदनशील हो जाता है कि उसे उचित और अनुचित, लाभ और हानि, आत्मकल्याण और आत्महानि का भेद भी नहीं सूझता। उसका मन विवेकशून्य होकर केवल स्थूल इच्छाओं और वासनाओं में फँस जाता है। शंकराचार्य कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति न कुछ समझता है और न ही किसी सत्य की खोज करता है। उसका आचरण निद्रालु व्यक्ति की तरह हो जाता है, जो जागृत होते हुए भी अचेतन रहता है। कभी-कभी तो वह स्तम्भ के समान जड़वत् खड़ा रह जाता है, जैसे चेतना का उसमें अभाव हो।
इस श्लोक का गूढ़ संदेश यही है कि तमोगुण का प्रभाव आत्मबोध के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। सत्त्व और रजोगुण भी मनुष्य को बाँधते हैं, लेकिन तमोगुण की विशेषता यह है कि यह चेतना को ढककर उसे निष्क्रिय बना देता है। यही कारण है कि शास्त्रों और आचार्यों ने साधक को विशेष रूप से तमोगुण से बचने की शिक्षा दी है। जब तक साधक अपने जीवन से आलस्य, प्रमाद और मूढ़ता को दूर नहीं करता, तब तक उसके लिए आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ना असंभव है। अतः साधक को चाहिए कि वह जागरूकता, परिश्रम और विवेक को अपनाकर तमोगुण की इस जड़ता से स्वयं को मुक्त करे और आत्मबोध की दिशा में दृढ़ कदम बढ़ाए।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!