"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 119वां श्लोक"
"सत्वगुण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
सत्त्वं विशुद्धं जलवत्तथापि ताभ्यां मिलित्वा सरणाय कल्पते।
यत्रात्मबिम्बः प्रतिबिम्बितः सन् प्रकाशयत्यर्क इवाखिलं जडम् ॥ ११९ ॥
अर्थ:-सत्त्वगुण जल के समान शुद्ध है, तथापि रज और तमसे मिलने पर वह भी पुरुष की प्रवृत्ति का कारण होता है; इसमें प्रतिबिम्बित होकर आत्मबिम्ब सूर्य के समान समस्त जड पदार्थों को प्रकाशित करता है।
यह श्लोक विवेकचूडामणि में सत्त्वगुण की प्रकृति और उसके कार्य को अत्यंत सुंदर ढंग से स्पष्ट करता है। आचार्य शंकर यहाँ बताते हैं कि सत्त्वगुण अपनी स्वाभाविक शुद्धता और प्रकाशमयता के कारण मनुष्य के लिए सबसे अधिक सहायक होता है, किन्तु जब वह रजोगुण और तमोगुण के साथ मिल जाता है तो वही संसार की प्रवृत्तियों का कारण बनता है। इस श्लोक में आत्मा और सत्त्वगुण के संबंध को जल और सूर्य के उदाहरण द्वारा समझाया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार आत्मा का प्रकाश सत्त्वगुण के माध्यम से प्रकट होकर जड़ पदार्थों को भी प्रकाशित करता है।
सत्त्वगुण को जल के समान कहा गया है। जल का स्वभाव शुद्ध और पारदर्शी होता है। जब जल शांत और निर्मल होता है, तब उसमें सूर्य का प्रतिबिंब स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उसी प्रकार जब मन सत्त्वगुण से निर्मल और शुद्ध होता है, तब उसमें आत्मा का प्रतिबिंब पूर्ण रूप से प्रकट होता है। यह प्रतिबिंब ही जीव को चेतना और प्रकाश का अनुभव कराता है। परंतु जैसे जल में यदि गंदगी या अशांति आ जाए तो प्रतिबिंब विकृत हो जाता है, वैसे ही सत्त्व जब रज और तम के साथ मिल जाता है, तो आत्मा का प्रतिबिंब धुंधला हो जाता है और जीव संसारिक प्रवृत्तियों में उलझ जाता है।
यहाँ आत्मा को सूर्य के समान कहा गया है। सूर्य स्वयं प्रकाशमान है और उसे किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। परंतु उसके प्रकाश का अनुभव तभी होता है जब वह किसी माध्यम से परिलक्षित होता है। इसी प्रकार आत्मा स्वप्रकाश और चैतन्यमय है, परंतु उसका अनुभव केवल तब संभव है जब मन सत्त्वगुण से निर्मल और शांत हो। मन ही वह दर्पण है जिसमें आत्मा का प्रकाश परिलक्षित होकर संपूर्ण जड़ जगत को चेतना का अनुभव कराता है। इसलिए कहा गया है कि आत्मा का प्रतिबिंब मन में पड़कर सूर्य के समान समस्त जड़ पदार्थों को प्रकाशित करता है।
सत्त्वगुण की विशेषता है उसकी शुद्धता और संतुलन। यह न तो आलस्य और अज्ञान से ढकता है, जैसे तमोगुण करता है, और न ही रजोगुण की तरह अत्यधिक प्रवृत्ति और अस्थिरता पैदा करता है। सत्त्वगुण मनुष्य को शांति, संतोष, करुणा, विवेक और आत्मबोध की ओर ले जाता है। लेकिन जब यह रज और तम के प्रभाव में आ जाता है, तो व्यक्ति की चेतना संसार की ओर खिंच जाती है। इसलिए शंकराचार्य संकेत देते हैं कि सत्त्वगुण भी पूर्ण स्वतंत्र नहीं है; उसमें भी बंधन की संभावना है। साधक को चाहिए कि वह सत्त्वगुण की शुद्धता का सहारा लेकर आत्मबोध की ओर बढ़े और अंततः गुणातीत अवस्था को प्राप्त करे।
इस श्लोक का गहरा संदेश यह है कि आत्मा की चेतना अपने आप में पूर्ण और स्वप्रकाशित है, परंतु जीव के अनुभव में वह केवल मन के माध्यम से ही आती है। यदि मन सत्त्वमय और निर्मल है, तो आत्मा का प्रकाश सहज रूप से प्रकट होता है और संसार को प्रकाशित करता है। यही कारण है कि साधना में मन की शुद्धि को अत्यधिक महत्व दिया गया है। मन की शुद्धि के बिना आत्मसाक्षात्कार संभव नहीं। इसलिए साधक को चाहिए कि वह तम और रज की अशुद्धियों को त्यागकर सत्त्वगुण को विकसित करे, ताकि आत्मा का सूर्य स्पष्ट रूप से प्रकट होकर उसके जीवन को आलोकित कर सके।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!