"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 120वां श्लोक"
"सत्वगुण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मिश्रस्य सत्त्वस्य भवन्ति धर्मा-स्त्वमानिताद्या नियमा यमाद्याः ।
श्रद्धा च भक्तिश्च मुमुक्षुता च दैवी च सम्पत्तिरसन्निवृत्तिः ॥ १२० ॥
अर्थ:-अमानित्व आदि, यम-नियमादि, श्रद्धा, भक्ति, मुमुक्षुता, दैवी-सम्पत्ति तथा असत्का त्याग-ये मिश्र (रज-तमसे मिले हुए) सत्त्वगुण के धर्म हैं।
इस श्लोक में शंकराचार्य मिश्रित सत्त्वगुण के गुणों और उनके महत्व को बताते हैं। सत्त्वगुण जब रज और तम से पूर्णतः मुक्त नहीं होता, तब भी उसमें ऐसी विशेषताएँ प्रकट होती हैं जो साधक को आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करने में सहायक होती हैं। इसे "मिश्र सत्त्व" कहा गया है। इस अवस्था में मनुष्य में अनेक दैवी और सद्गुण उत्पन्न होते हैं—अमानित्व (अहंकार का अभाव), यम-नियम, श्रद्धा, भक्ति, मुमुक्षुता (मोक्ष की तीव्र इच्छा), दैवी सम्पत्ति और असत्कर्यों का त्याग। ये सभी गुण आत्मसाधना के लिए आवश्यक हैं और साधक को अज्ञान और बंधन से मुक्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
अमानित्व या अहंकार का अभाव आध्यात्मिक साधना का पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण है। जब मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति से मुक्त हो जाता है, तब उसका हृदय विनम्र और शुद्ध हो जाता है। विनम्रता से ही वह गुरु, शास्त्र और परम सत्य को ग्रहण करने योग्य बनता है। इसके साथ ही यम-नियम आते हैं, जो आचार-व्यवहार और अनुशासन की नींव हैं। यम जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, तथा नियम जैसे शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान, साधक को बाह्य और आंतरिक दोनों स्तरों पर शुद्ध करते हैं। ये गुण रज और तम की अशुद्धियों को कम करके मन को आत्मबोध के योग्य बनाते हैं।
श्रद्धा और भक्ति भी मिश्र सत्त्व के प्रमुख गुण हैं। श्रद्धा का अर्थ है गुरु, शास्त्र और परमात्मा पर अटूट विश्वास। बिना श्रद्धा के साधक शास्त्रों के गूढ़ सत्य को न तो समझ सकता है और न ही आत्मसात कर सकता है। भक्ति साधक को आत्मसमर्पण की ओर ले जाती है, जिससे उसका अहंकार धीरे-धीरे मिटता जाता है। भक्ति से साधक का मन भगवान या ब्रह्म की ओर केंद्रित होता है और बाहरी विक्षेप कम हो जाते हैं।
मुमुक्षुता, अर्थात् मोक्ष की तीव्र आकांक्षा, साधना का मुख्य प्रेरक तत्व है। जब तक मनुष्य में संसार के बंधनों से मुक्त होने की प्रबल इच्छा नहीं होती, तब तक वह साधना के मार्ग पर गंभीरता से आगे नहीं बढ़ सकता। यही मुमुक्षुता उसे निरंतर साधना करने, विवेक और वैराग्य विकसित करने तथा आत्मबोध की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती है।
दैवी सम्पत्ति का भी यहाँ उल्लेख है। भगवद्गीता में दैवी सम्पत्तियाँ जैसे अभय, दानशीलता, आत्मसंयम, अहिंसा, सत्य, करुणा, क्षमा, सरलता आदि गिनाई गई हैं। ये सभी गुण सत्त्वगुण से उत्पन्न होकर साधक को दिव्यता की ओर ले जाते हैं। इसके साथ ही "असन्निवृत्ति" का भी उल्लेख है, जिसका अर्थ है असत् का त्याग—अर्थात् मिथ्या, अनैतिकता और अविद्या से दूर रहना। जब साधक असत् का त्याग करता है, तभी वह सत् की ओर बढ़ पाता है।
इस श्लोक का सार यह है कि भले ही सत्त्व रज और तम से मिश्रित हो, फिर भी उससे उत्पन्न गुण साधक को आत्मबोध के मार्ग पर आगे ले जाने वाले होते हैं। ये गुण साधना की नींव हैं। बिना अमानित्व, यम-नियम, श्रद्धा, भक्ति, मुमुक्षुता और दैवी सम्पत्तियों के आत्मज्ञान की प्राप्ति कठिन है। इसलिए साधक को चाहिए कि वह अपने जीवन में इन गुणों का विकास करे और असत्कर्मों से दूर रहे। धीरे-धीरे इन गुणों के प्रभाव से मन शुद्ध होकर आत्मा का प्रतिबिंब स्पष्ट प्रकट करता है और साधक मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!