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सोमवार, 15 सितंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 121वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 121वां श्लोक"

"सत्वगुण"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

विशुद्धसत्त्वस्य गुणाः प्रसादः स्वात्मानुभूतिः परमा प्रशान्तिः ।

तृप्तिः प्रहर्षः परमात्मनिष्ठा यया सदानन्दरसं समृच्छति ॥ १२१ ॥

अर्थ:-प्रसन्नता, आत्मानुभव, परमशान्ति, तृप्ति, आत्यन्तिक आनन्द और परमात्मा में स्थिति - ये विशुद्ध सत्त्वगुण के धर्म हैं, जिनसे मुमुक्षु नित्यानन्द रस को प्राप्त करता है।

इस श्लोक में शंकराचार्य सत्त्वगुण की विशुद्ध अवस्था के परिणामों का वर्णन करते हैं। जब मन पूर्णत: रज और तम के प्रभाव से मुक्त होकर केवल सत्त्वमय हो जाता है, तब उसमें आत्मा का प्रकाश बिना किसी विकृति के परिलक्षित होता है। इस अवस्था में साधक अनेक अद्भुत अनुभवों का अधिकारी होता है—उसके भीतर प्रसाद, आत्मानुभूति, परम शांति, तृप्ति, प्रहर्ष और परमात्मा में अटूट निष्ठा उत्पन्न होती है। यही वे गुण हैं जो साधक को नित्य आनंद के रस से परिपूर्ण कर देते हैं।

पहला लक्षण है प्रसाद, जिसका अर्थ है अंतःकरण की निर्मल प्रसन्नता। जब मन शुद्ध और सत्त्वमय होता है तो उसमें कोई विक्षेप या अशांति शेष नहीं रहती। जैसे स्वच्छ आकाश में सूर्य का प्रकाश पूर्ण रूप से फैला होता है, वैसे ही शुद्ध मन में आत्मा की आभा स्पष्ट रूप से झलकती है। इस अवस्था में साधक का चेहरा और व्यवहार स्वाभाविक आनंद और संतुलन से भरा होता है।

दूसरा लक्षण है स्वात्मानुभूति—अर्थात आत्मा के वास्तविक स्वरूप का अनुभव। यह केवल बौद्धिक समझ नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव है। साधक जान लेता है कि वह शरीर, इंद्रियाँ और मन नहीं, बल्कि शुद्ध चैतन्य आत्मा है। इस आत्मानुभूति से उसका दृष्टिकोण बदल जाता है। अब वह संसार की क्षणभंगुर वस्तुओं को अपनी वास्तविक पहचान नहीं मानता, बल्कि आत्मा की शाश्वतता को ही सत्य मानकर जीता है।

तीसरा लक्षण है परमा प्रशांति। आत्मानुभव होने पर मन को ऐसा अडिग संतोष और शांति प्राप्त होती है जो किसी बाहरी परिस्थिति पर निर्भर नहीं रहती। सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय जैसी द्वंद्वात्मक स्थितियाँ उसके मन को विचलित नहीं करतीं। यह परम शांति केवल विशुद्ध सत्त्व की अवस्था में ही संभव है, क्योंकि रजोगुण की गति और तमोगुण की जड़ता इसमें बाधा नहीं डाल पाती।

चौथा लक्षण है तृप्ति। आत्मा का साक्षात्कार होने के बाद साधक को किसी भी बाहरी वस्तु की लालसा नहीं रहती। उसके भीतर ऐसा संतोष उत्पन्न होता है कि चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, वह पूर्णता का अनुभव करता है। यह तृप्ति स्थायी है और कभी क्षीण नहीं होती, क्योंकि यह आत्मा के शाश्वत स्वरूप से जुड़ी होती है।

पाँचवाँ लक्षण है प्रहर्ष—आत्यन्तिक आनंद का उद्रेक। जब साधक आत्मा की दिव्य सत्ता को अनुभव करता है, तो उसके भीतर सहज ही आनंद की तरंगें उठती हैं। यह आनंद किसी इंद्रियजन्य सुख का परिणाम नहीं होता, बल्कि आत्मा के स्वरूप से उत्पन्न होने वाला नित्य, निर्मल और अखंड आनंद होता है।

अंतिम और सबसे महत्त्वपूर्ण लक्षण है परमात्मनिष्ठा। विशुद्ध सत्त्व में स्थित साधक अपनी चेतना को पूर्ण रूप से परमात्मा में स्थिर कर देता है। अब उसका मन इधर-उधर भटकता नहीं, बल्कि ब्रह्म में ही रमा रहता है। यही निष्ठा उसे सदानन्दरसं—नित्य आनंद के रस—का अनुभव कराती है। यह आनंद न तो घटता है और न ही किसी बाहरी कारण पर निर्भर करता है।

इस श्लोक का सार यही है कि साधक को आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए मन को रज और तम से मुक्त करके सत्त्व को विशुद्ध बनाना चाहिए। विशुद्ध सत्त्व में ही आत्मा का प्रकाश प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यही अनुभव साधक को प्रसन्नता, आत्मानुभूति, परम शांति, संतोष, आनंद और परमात्मा में अडिग निष्ठा प्रदान करता है। अंततः यही अवस्था मोक्ष और नित्य आनंद की ओर ले जाती है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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