"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 122वां श्लोक"
"कारण शरीर"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं तत्कारणं नाम शरीरमात्मनः ।
सुषुप्तिरेतस्य विभक्त्यवस्था प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः ॥ १२२॥
अर्थ:-इस प्रकार तीनों गुणों के निरूपण से यह अव्यक्त का वर्णन हुआ। यही आत्मा का कारण-शरीर है। इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था सुषुप्ति है, जिसमें बुद्धि की सम्पूर्ण वृत्तियाँ लीन हो जाती हैं।
विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने अव्यक्त, अर्थात कारण-शरीर का अत्यंत सूक्ष्म विवेचन किया है। यहाँ आत्मा के तीनों शरीरों में से कारण-शरीर का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। कारण-शरीर को "अव्यक्त" कहा गया है, क्योंकि यह इन्द्रियों और बुद्धि की पकड़ से परे है, प्रत्यक्ष अनुभव में नहीं आता। यह केवल अनुमान से जाना जाता है। जब जीव जाग्रत या स्वप्नावस्था में होता है, तब स्थूल और सूक्ष्म शरीर सक्रिय रहते हैं, लेकिन जब सुषुप्ति अर्थात गहरी नींद की अवस्था आती है, तब स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही लीन हो जाते हैं और केवल कारण-शरीर की स्थिति बनी रहती है। इसी कारण कहा गया है कि सुषुप्ति कारण-शरीर/जीव की अविभक्ति अवस्था है।
शंकराचार्य कहते हैं कि यह अव्यक्त त्रिगुणात्मक है। इसका आश्रय सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण हैं। जब तक यह कारण-शरीर विद्यमान है, तब तक जीव संसार में जन्म-मरण के चक्र से बंधा रहता है। कारण-शरीर ही वास्तव में संसार के बंधन का मूल है, क्योंकि इसमें अविद्या का वास होता है। अविद्या ही सभी क्लेशों, कर्मों और वासनाओं का बीज है। यह बीज सुषुप्ति की अवस्था में सुप्त रहता है और जाग्रत व स्वप्न में फलित होता है। इस प्रकार कारण-शरीर को आत्मा का "आदि आवरण" माना गया है।
सुषुप्ति में जब इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि सब अपनी-अपनी क्रियाओं को लय कर देते हैं, तब जीव केवल अज्ञानमय शांति का अनुभव करता है। वह उस समय कह नहीं सकता कि "मैंने यह देखा" या "मैंने यह जाना," बल्कि केवल इतना कहता है – "मैं अच्छी नींद सोया था, कुछ नहीं जानता था।" यह "कुछ नहीं जानना" ही अविद्या का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसी अज्ञान की स्थिति में आत्मा कारण-शरीर में अवस्थित रहती है।
यहाँ पर एक गूढ़ तत्व यह है कि सुषुप्ति में भले ही जीव दुख से मुक्त प्रतीत होता है, किन्तु वह स्थायी मुक्ति नहीं है। क्योंकि जाग्रत होते ही फिर से वही कर्म, वासनाएँ और दुख सामने आ जाते हैं। इसका कारण यह है कि कारण-शरीर का आवरण अभी विद्यमान है। जब तक यह आवरण नहीं मिटता, तब तक जीव पुनः संसार में भटकता रहता है।
वेदान्त कहता है कि आत्मा स्वभावतः शुद्ध, नित्य और मुक्त है, लेकिन कारण-शरीर के रूप में विद्यमान अविद्या के कारण उसकी वास्तविक प्रकृति ढकी हुई है। यह ठीक वैसे है जैसे सूर्य बादलों से ढक जाने पर दिखाई नहीं देता, परन्तु सूर्य का प्रकाश अपने आप में कभी कम नहीं होता। उसी प्रकार आत्मा का प्रकाश भी अव्यक्त के आवरण से ढका हुआ रहता है।
अतः इस श्लोक के माध्यम से शंकराचार्य साधक को यह समझाते हैं कि जब तक कारण-शरीर की पहचान और उसकी सीमाओं का बोध नहीं होता, तब तक आत्मज्ञान संभव नहीं है। केवल सुषुप्ति जैसी तात्कालिक शांति से भ्रमित होकर यह नहीं सोचना चाहिए कि वही मुक्ति है। वास्तविक मुक्ति तो तभी होगी जब साधक विवेक और ध्यान द्वारा इस कारण-शरीर का अतिक्रमण कर आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव करेगा। यही अद्वैत वेदान्त का चरम संदेश है कि आत्मा न तो स्थूल है, न सूक्ष्म, न कारण, बल्कि उन सबका साक्षी और शुद्ध चैतन्य स्वरूप है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!